17.1 C
Ranchi

BREAKING NEWS

Advertisement

Deepawali 2022:आधुनिकता के दौर में कैसे धीमी पड़ गयी चाक की रफ्तार, पुस्तैनी धंधे से दूर हो रही नयी पीढ़ी

फैक्ट्रियों से निकलने वाले उत्पादों ने अब चाक की रफ्तार धीमी कर दी है. मिट्टी के दीये, बर्तन, खिलौनों की जगह अब कागज, प्लास्टिक और प्लास्टर ऑफ पेरिस तथा धातु से बने उत्पादों ने ले ली है. मिट्टी के दीये अब पूजाघरों और धार्मिक आयोजनों में सिमट कर रह गये हैं.

Deepawali 2022: एक समय था, जब दीपावली पर चारों ओर मिट्टी के दीये जगमगाते थे. घरों की छतों व चहारदीवारी पर करीने से जलते दिये आंखों को सकून देते थे. अब इनकी जगह बिजली के झालर और मोमबतियां लेती जा रही हैं. मिट्टी के दीये और बर्तनों का इस्तामाल कम होता जा रहा है. ऐसे में आधुनिकता के इस दौर में कुम्हारों का पुस्तैनी काम धीरे-धीरे पीछे छूटता जा रहा है. फैक्ट्रियों से निकलने वाले उत्पादों ने अब चाक की रफ्तार धीमी कर दी है. मिट्टी के दीये, बर्तन, खिलौनों की जगह अब कागज, प्लास्टिक और प्लास्टर ऑफ पेरिस तथा धातु से बने उत्पादों ने ले ली है. मिट्टी के दीये अब पूजाघरों और धार्मिक आयोजनों में सिमट कर रह गये हैं.

पुस्तैनी धंधे से दूर होती जा रही है नयी पीढ़ी

आधुनिकता की दौड़ में मिट्टी से बने उत्पादों की मांग कम हुई तो कुम्हार परिवारों के समक्ष घोर संकट उत्पन्न हो गया है. ऐसे में कुम्हार जाति की नयी पीढ़ी अपने पुस्तैनी धंधे से दूर होती जा रही है. वे पढ़-लिखकर कोई और काम कर रहे हैं. अब ऐसे कम ही परिवार हैं जो अपने पुस्तैनी धंधे से पूरी तरह जुड़े हुए हैं. कहते हैं कि बेरमो में लगभग सवा डेढ़ सौ साल पहले कई कुम्हार परिवार जरीडीह बाजार में आकर बसे थे. कुछ कुम्हार परिवार यहां गिरिडीह से तो कुछ गया जिले से आये थे. अभी भी जरीडीह बाजार में सैकड़ों कुम्हार परिवार हैं जो अपने पुस्तैनी धंधे को संभाले हुए हैं. कहते हैं कि जरीडीह बाजार में सबसे पहले गोपी पंडित आये थे. बाद में इनके पुत्र बुधु कुम्हार आये. इनके बेटे बाडो कुम्हार व बाडो कुम्हार के बेटे मनोज पंडित तथा जवाहर पंडित ने इस काम को आगे बढ़ाया. इस पुस्तैनी धंधे को शनिचर कुम्हार, पोखन कुम्हार व इनके परिवार के कई लोगों ने संजोये रखा. बेरमो के अलावा गोमिया, चंद्रपुरा में भी सैकड़ों कुम्हार परिवार रह रहे हैं.

Also Read: Jharkhand News: गुमला के केराडीह घाट पर 787 रुपये ट्रैक्टर बालू, खरीदारी के लिए ऑनलाइन बुकिंग है अनिवार्य

अपने पूर्वजों से सीखी मट्टिी के बर्तन बनाने की कला

जरीडीह बाजार के 75 वर्षीय जवाहर प्रजापति का कहना है कि अभी भी मिट्टी के दीये की कीमत अन्य सामग्री की तुलना में ज्यादा नहीं है. अभी 100 रुपये सैकड़ा छोटा व बड़ा दीया बेचते हैं. एक दशक पूर्व दीपावली के समय जितने दीये बेचते थे, अब व घटकर एक तिहाई रह गई है. कई तरह की लाइट बाजार में आ जाने के कारण लोग मिट्टी के दीये से दूर हो रहे हैं. वे कहते हैं कि 18-19 की उम्र में वे गिरिडीह में अपने दादा से मिट्टी के बर्तन बनाने की कला को सीख कर जरीडीह बाजार आये थे. आज भी सुबह से लेकर देर शाम तक चाक पर काम करते हैं. इसमें इनकी पत्नी बंदिया देवी का पूरा सहयोग मिलता है. वे कहते हैं कि उनके तीन पुत्र इस पुस्तैनी धंधे को नहीं अपनाकर अलग-अलग व्यवसाय से जुड़ गये हैं.

Also Read: Jharkhand News: राष्ट्रीय तीरंदाज अंकिता कुमारी को BSF में नौकरी, रोजगार मेले में मिला ज्वाइनिंग लेटर

कुल्हड़ में मिलता था दूध-दही और रसगुल्ला

पहले दुकानों व होटलों में मिट्टी के बर्तन (कुल्हड़) में ही रसगुल्ला, दूध-दही व मट्ठा मिला करता था, जिसका स्वाद ही कुछ और ही था. कई नामी गिरामी होटलों में मुर्गा व मीट कुल्हड़ में ही दिया जाता था. शादी-ब्याह सहित पूजा पाठ के अलावा अन्य समारोह में पानी पीने के लिए मिट्टी के गिलास का प्रयोग होता था. अब चाय की दुकानों को छोड़ कहीं भी कुल्हड़ नजर नहीं आते. मिट्टी के अन्य बर्तनों का भी उपयोग सिमट गया है. चाय भी ज्यादातर कागज व प्लास्टिक के कप में ही मिलता है.

रिपोर्ट : राकेश वर्मा, बेरमो, बोकारो

Prabhat Khabar App :

देश, एजुकेशन, मनोरंजन, बिजनेस अपडेट, धर्म, क्रिकेट, राशिफल की ताजा खबरें पढ़ें यहां. रोजाना की ब्रेकिंग हिंदी न्यूज और लाइव न्यूज कवरेज के लिए डाउनलोड करिए

Advertisement

अन्य खबरें

ऐप पर पढें