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आधुनिकता के दौर में धीमी हुई चाक की रफ्तार, कुल्हड़-भांड की जगह अब प्लास्टिक के बरतनों का इस्तेमाल

आधुनिकता की दौड़ में मिट्टी के उत्पादों की मांग कम हुई तो कुम्हार परिवारों के समक्ष परंपरागत हुनर से जीविका चलाना मुश्किल होता गया. उनके समक्ष विकट संकट उत्पन्न हो गया है. ऐसे में कुम्हार जाति की नयी पीढ़ी भी अपने पुश्तैनी धंधे से दूर होती जा रही है.

राकेश वर्मा, बेरमो : एक समय था जब दीपावली पर चारों ओर मिट्टी के दिये ही जगमगाते थे. छतों व चहारदीवारी पर करीने से जलते दिये सुकून देते थे. अब इनकी जगह बिजली के झालर और मोमबत्तियां लेती जा रही हैं. मिट्टी के दिये और बर्तनों का इस्तेमाल कमता जा रहा है. आधुनिकता के इस दौर में कुम्हारों का पुश्तैनी काम धीरे-धीरे पीछे छूटता जा रहा है. फैक्टरियों के उत्पादों ने अब चाक की रफ्तार धीमी कर दी है. मिट्टी के दिये, बर्तन, खिलौनों की जगह अब कागज, प्लास्टिक, सिंथेटिक और प्लास्टर ऑफ पेरिस तथा धातु के उत्पादों ने ले ली है. मिट्टी के दिये अब पूजा घरों और धार्मिक आयोजनों में सिमट कर रह गये हैं.

पुश्तैनी धंधे से दूर होती जा रही है नयी पीढ़ी

आधुनिकता की दौड़ में मिट्टी के उत्पादों की मांग कम हुई तो कुम्हार परिवारों के समक्ष परंपरागत हुनर से जीविका चलाना मुश्किल होता गया. उनके समक्ष विकट संकट उत्पन्न हो गया है. ऐसे में कुम्हार जाति की नयी पीढ़ी भी अपने पुश्तैनी धंधे से दूर होती जा रही है. वे पढ़-लिखकर कोई और रास्ता पकड़ रहे हैं. अब ऐसे कम ही परिवार हैं जो अपने पुश्तैनी धंधे से पूरी तरह जुड़े हैं. दीया बनाने वाले कारीगर पुराना बीडीओ ऑफिस फुसरो निवासी नीरज कुमार प्रजापति कहते हैं कि दीपावली पर मार्केट में विभिन्न प्रकार के रेडिमेड सजावटी सामग्री मिलने के कारण अब चाक से बने दीये की मांग कम होती गयी है. पहले हमारे यहां के बने दीया बेरमो कोयलांचल के विभिन्न स्थानों में जाते थे. विदित हो कि पहले कुम्हार समाज के लोग दीया बनाकर घर-घर देने जाते थे. बदले में रु व अनाज लेते थे, पर अब बाजार में बेचते हैं. इससे कुछ अधिक मुनाफा कमा लेते हैं.-

सबसे पहले जरीडीह बाजार में आये थे कुम्हार परिवार

पुराने लोग बताते हैं कि बेरमो में लगभग सवा डेढ़ सौ साल पहले कई कुम्हार परिवार जरीडीह बाजार में आकर बसे थे. कुछ कुम्हार परिवार यहां गिरिडीह से तो कुछ गया जिले से आये थे. अभी भी जरीडीह बाजार में सैकड़ों कुम्हार परिवार हैं जो अपने पुश्तैनी धंधे को संभाले हुए हैं. कहते हैं जरीडीह बाजार में सबसे पहले गोपी पंडित आये थे. बाद में इनके पुत्र बुधु कुम्हार आये. इनके बेटे बाड़ो कुम्हार व इनके बेटे मनोज पंडित तथा जवाहर पंडित ने इस काम को आगे बढ़ाया. इस पुश्तैनी धंधे को शनिचर कुम्हार, पोखन कुम्हार व इनके परिवार के कई लोगों ने संजोये रखा. बेरमो के अलावा गोमिया, चंद्रपुरा में भी सैकड़ों कुम्हार परिवार रह रहे हैं.

पूर्वजों से सीखा मिट्टी के बर्तन बनाने का हुनर

जरीडीह बाजार के 76 वर्षीय जवाहर प्रजापति का कहना है कि अभी भी मिट्टी के दिये की कीमत अन्य सामग्री की तुलना में ज्यादा नहीं है. अभी 100 रु सैकड़ा छोटा व बड़ा दीया बेचते हैं. एक दशक पूर्व दीपावली के समय जितने दिये बेचते थे, अब उसके एक तिहाई बिकते हैं. कई तरह की लाइट बाजार में आ जाने के कारण लोग मिट्टी के दिये से दूर हो रहे हैं. वे कहते हैं कि 18-19 की उम्र में वे गिरिडीह में अपने दादा से मिट्टी के बर्तन बनाने की कला सीख कर जरीडीह बाजार आये थे. आज भी सुबह से देर शाम तक चाक पर काम करते हैं. इसमें इनकी पत्नी बंदिया देवी का पूरा सहयोग मिलता है. वे कहते हैं कि उनके तीन पुत्र इस पुश्तैनी धंधे से नहीं, बल्कि अलग-अलग व्यवसाय से जुड़ गये हैं.

कुल्हड़ में मिलता था दूध-दही रसगुल्ला, शादियों में मिट्टी के गिलास में पीते थे पानी

पहले दुकानों व होटलों में मिट्टी के बर्तन (कुल्हड़) में ही रसगुल्ला, दूध-दही व मट्ठा मिला करता था, जिसका स्वाद ही कुछ और था. कई नामी-गिरामी होटलों में भी मुर्गा व मीट कुल्हड़ में ही परोसे जाते थे. शादी-ब्याह सहित पूजा-पाठ के अलावा अन्य समारोहों में पानी पीने के लिए मिट्टी के गिलास का प्रयोग होता था. अब चाय की दुकानों को छोड़ कुल्हड़ कहीं भी नजर नहीं आते. मिट्टी के अन्य बर्तनों का भी उपयोग सिमट गया है. चाय भी ज्यादातर कागज व प्लास्टिक के कप में ही मिलते हैं.

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