झारखंड के बोकारो की राजनीति के ध्रुव थे अकलूराम महतो, निधन पर सीएम हेमंत सोरेन ने जताया शोक
कसमार (दीपक सवाल) : बिहार सरकार के पूर्व मंत्री व बोकारो के पूर्व विधायक अकलू राम महतो (79) का राजकीय सम्मान के साथ अंतिम संस्कार किया गया. कल शुक्रवार की सुबह चार बजे बोकारो जेनरल अस्पताल में इलाज के दौरान उनका निधन हो गया था. वे काफी दिनों से बीमार चल रहे थे. वर्ष 1977 में बोकारो विधानसभा के अस्तित्व में आने के बाद से यहां की राजनीति में करीब चार दशक तक ध्रुव बने रहे अकलूराम महतो संघर्ष और आंदोलन की उपज थे. झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने इनके निधन पर शोक जताया है. उन्होंने कहा है कि ईश्वर दिवंगत आत्मा को शांति और परिजनों को दुख सहने की शक्ति दें.
कसमार (दीपक सवाल) : बिहार सरकार के पूर्व मंत्री व बोकारो के पूर्व विधायक अकलू राम महतो (79) का राजकीय सम्मान के साथ अंतिम संस्कार किया गया. कल शुक्रवार की सुबह चार बजे बोकारो जेनरल अस्पताल में इलाज के दौरान उनका निधन हो गया था. वे काफी दिनों से बीमार चल रहे थे. वर्ष 1977 में बोकारो विधानसभा के अस्तित्व में आने के बाद से यहां की राजनीति में करीब चार दशक तक ध्रुव बने रहे अकलूराम महतो संघर्ष और आंदोलन की उपज थे. झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने इनके निधन पर शोक जताया है. उन्होंने कहा है कि ईश्वर दिवंगत आत्मा को शांति और परिजनों को दुख सहने की शक्ति दें.
अविभाजित बिहार में मंत्री व बोकारो में दो दफा विधायक रह चुके अकलूराम ने वर्ष 1956-57 में महज 10-11 वर्ष की उम्र आंदोलन में कदम रख दिया था. उस समय तत्कालीन मानभूम जिला को पश्चिम बंगाल में शामिल करने को लेकर जो आंदोलन शुरू हुआ था, अकलूराम उसका हिस्सा बने थे. वैसे तो चास में इस आंदोलन का नेतृत्व पार्वती चरण महतो, हरदयाल शर्मा, शिवप्रसाद सिंह, वनमाली सिंह, टिकैत मनमोहन सिंह, जानकी महतो, डोमन महतो सरीखे अनेक लोग कर रहे थे, उसी में ‘चास थाना क्षेत्र छात्र संघ’ भी मानभूम को बिहार में ही रहने देने के पक्ष में आंदोलनरत था. तब अकलू राम ने किशोरावस्था में ही छात्र संघ का नेतृत्व किया था और आंदोलन को धार देने में अहम भूमिका निभाई थी. राजनीति में इनकी कुशवाहा समेत पिछड़े वर्ग में विशेष तौर पर गहरी पैठ थी.
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बोकारो स्टील प्लांट के विस्थापितों के आंदोलन में भी अकलूराम के योगदान को कभी भुलाया नहीं जा सकता. विस्थापित आंदोलन ने ही इन्हें बोकारो में बड़ी पहचान दिलाई. 6 अप्रैल 1968 को बोकारो स्टील प्लांट की प्रथम धमन भट्टी के शिलान्यास के लिए पहुंची तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को बोकारो निवास से निकलने के दौरान उन्हें गोरिल्ला तौर-तरीके से घेरने वाले विस्थापितों का नेतृत्व करने वालों में अकलूराम भी शामिल थे. उस समय इन्होंने “नौकर तुम बाहर आओ मालिक मिलने आए हैं” का नारा बुलंद किया था. श्रीमती गांधी को इस तरह रोके जाने का सकारात्मक परिणाम निकला था.
उन्होंने अपने वादे के मुताबिक शिलान्यास कार्यक्रम से लौटने के बाद अकलूराम समेत अन्य विस्थापित नेताओं को बुला कर बोकारो निवास में बातचीत की थी और श्रीमती गांधी के द्वारा मुख्य सचिव को दिए गए निर्देश के बाद विस्थापितों की मुआवजा राशि बढ़ी, नौकरियों में तरजीह दी गई और विस्थापितों का अस्तित्व बोकारो स्टील में कायम हो पाया था. बोकारो इस्पात में चतुर्थ श्रेणी की नौकरी विस्थापितों के लिए आरक्षित होने का लाभ अब-तक हजारों विस्थापितों को मिल चुका है. अकलूराम ने 1964 से लगातार चार दशक तक विस्थापितों के हित में अनेक संघर्ष और आंदोलन किए तथा उसे मुकाम तक पहुंचाने में अहम भूमिका निभाई. शुरुआती दिनों में इन्होंने मूलतः सोशलिस्ट पार्टी के बैनर तले आंदोलन प्रारंभ किया था. बाद में ‘विस्थापित विकास समिति’ के बैनर तले लंबे समय तक आंदोलन किया, और अंतिम सांस तक लड़ते रहे.
अकलू राम की राजनीतिक पारी का आगाज अमूमन 1977 के चुनाव में हुआ. उसी समय बोकारो विधान सभा अस्तित्व में आया था. उस समय कर्पूरी ठाकुर के साथ इनके अच्छे संबंध थे. इन्हें उम्मीद थी कि जनता पार्टी से टिकट मिल जाएगा. लेकिन, आवेदन देने के बावजूद इन्हें टिकट नहीं मिल पाया. इमामुल हई खान को जनता पार्टी ने उम्मीदवार बनाकर मैदान में उतारा था. नाराज़ होकर अकलूराम निर्दलीय ही मैदान में उतर गए. जीत तो नहीं मिली, लेकिन प्रथम चुनाव में ही बोकारो की राजनीति में अपनी ज़ोरदार उपस्थिति दर्ज कराई. इस चुनाव में कांटे के मुकाबले में अकलूराम 8 हजार 886 वोटों के साथ तीसरे स्थान पर रहे थे. समरेश सिंह ने स्वतंत्र लड़ते हुए 10 हजार 356 वोटों के साथ जीत दर्ज की थी. जबकि, 10 हजार 151 वोटों के साथ इमामुल हई खान दूसरे स्थान पर रहे थे.
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1980 के चुनाव में अकलूराम ने पहली बार जीत दर्ज की. जेएनपीएससी उम्मीदवार के तौर पर लड़ते हुए श्री महतो ने 32 हजार 969 वोट लाकर भाजपा के समरेश सिंह को पराजित किया था. श्री सिंह को इस चुनाव में 23 हजार 145 वोट मिले थे. 1985 और 1990 के चुनाव में श्री महतो दूसरे स्थान पर रहे. 1985 का चुनाव लोक दल से लड़ते हुए करीब 18 हजार वोटों के अंतराल से समरेश सिंह से पराजित हुए थे. वहीं, 1990 का चुनाव निर्दलीय लड़ा और करीब 4 हजार वोटों के अंतराल से श्री सिंह से हार गए. लेकिन, 1995 के चुनाव में अकलूराम एक बार फिर बड़े अंतराल से जीत दर्ज करने में कामयाब हुए. इस चुनाव में जनता दल के टिकट से लड़ते हुए श्री महतो ने 99 हजार 798 वोट प्राप्त किए थे. वहीं, दूसरे स्थान पर रहे स्वतंत्र उम्मीदवार समरेश सिंह को 69 हजार 483 वोट मिले थे. इन चुनावों के बाद भी अकलूराम ने विधानसभा एवं लोकसभा के कई चुनाव लड़े, लेकिन फिर दोबारा कभी वापसी नहीं कर पाए.
अकलू राम मूलतः चास प्रखंड की नारायणपुर पंचायत स्थित चौरा गांव के निवासी थे. इनकी पारिवारिक पृष्ठभूमि एक साधारण कृषक परिवार की है. इनके पिता का नाम स्वर्गीय लाल महतो है. दो भाइयों में छोटे अकलुराम को पढ़ाई के दिनों में भी काफी संघर्ष करने पड़े थे. इनका जन्म मूल गांव महुआर के चिटाही में 16 मई 1947 को हुआ था. प्रारंभिक शिक्षा आसनसोल प्राथमिक विद्यालय में हुई. बांग्ला सीखने के ख्याल से यहां नामांकन कराया गया था. इनकी प्रतिभा को देखते हुए दो वर्ष में ही तीसरी कक्षा तक की पढ़ाई पूरी करा दी गई. इसके बाद चौथी से पिंडरगढ़िया बुनियादी स्कूल में कक्षा चार से छह तक की पढ़ाई हुई.
वर्ष 1962 में रामरूद्र हाई स्कूल, चास से मैट्रिक की. कठिन परिस्थितियों में भी इन्होंने अपनी पढ़ाई जारी रखी और अनेक डिग्रियां हासिल की. इनकी गिनती बोकारो में सर्वाधिक पढ़े लिखे नेताओं में होती हैं. डबल एमएम के बाद 1974 में बीएल की डिग्री भी प्राप्त की. इसी साल बिहार वेलफेयर अफसर का एक वर्षीय डिप्लोमा भी प्राइवेट में किया. उस वक्त नौकरी में काफी प्रयास किया, लेकिन अवसर नहीं मिल पाया. हालांकि, वर्ष 1973 में कोल माइंस में वेलफेयर अवसर में वर्द्धमान में इनका चयन हुआ था. लेकिन इन्होंने उसे ज्वाइन नहीं किया. क्योंकि बोकारो स्टील प्लांट के निर्माण में इनकी जमीन गई थी और इनकी सोच थी कि विस्थापितों एवं अपने घर के बाकी लोगों को भी नौकरी दिलानी है. बीएसएल में पर्सनल मैनेजर के पद पर साक्षात्कार के बावजूद इनकी नियुक्ति नहीं की गई. इमरजेंसी के दिनों में पुलिस इनके पीछे पड़ गई थी. तब बीएसएल के अधिकारियों ने ही गिरफ्तारी से बचने में इनकी मदद की थी. इमरजेंसी टूटने के बाद 1977 में हुए लोकसभा के चुनाव में सक्रिय रूप से भाग लिया एवं एके राय की जीत में अपनी अहम भूमिका निभाई. श्री महतो अविभाजित बिहार सरकार में वित्त एवं सांस्थिक मंत्री भी रह चुके हैं.
अकलूराम लगभग एक दर्जन भाषाओं के ज्ञाता थे. संथाली भाषाओं को छोड़कर झारखंड-बिहार की अमूमन सभी प्रमुख भाषाओं का इन्हें ज्ञान था. उन भाषाओं में बोलना विचार, व्यक्त करना एवं लिखना इन्हें बखूबी आता था. इन भाषाओं में मुख्य रूप से बांग्ला, हिंदी, अंग्रेजी, उर्दू, खोरठा, भोजपुरी, मैथिली, मगही, नागपुरी आदि शामिल है. भोजपुरी भाषा में लघु नाटिका भी लिख चुके हैं. खोरठा भाषा आंदोलन में भी इनकी अग्रणी भूमिका रही है. खोरठा एवं कुरमाली को मान्यता दिलाने में इनका योगदान रहा है. खोरठा में इनकी कई रचनाएं अभी भी खोरठा साहित्य में चल रही है. अकलूराम राष्ट्रीय जनता दल की राजनीति भी कर चुके हैं. अलग राज्य बनने के बाद इन्हें राजद का प्रदेश अध्यक्ष भी बनाया गया था. संगठन में पूरी ईमानदारी के साथ काम किया. लेकिन 2005 के चुनाव में इन्हें राजद का टिकट नहीं दिया गया. तब राजद ने बच्चा सिंह को उम्मीदवार बनाया था. इसके विरोध में श्री महतो निर्दलीय मैदान में उतरे. जीत दर्ज नहीं कर पाए, लेकिन बच्चा सिंह को हार का सामना करना पड़ा. कांग्रेस के इजराइल अंसारी ने इसमें जीत दर्ज को थी. इसके अलावा अन्य लोकदल, झामुमो, भाकपा, सोशलिस्ट पार्टी में भी रह चुके है. 2009 के लोकसभा चुनाव में गिरिडीह लोकसभा से भाकपा उम्मीदवार के रूप में ही लड़े थे. धनबाद और हजारीबाग लोकसभा से भी चुनाव लड़ चुके हैं.
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अतुल राम महतो अपने पीछे 5 पुत्र छोड़ गए हैं. बड़े पुत्र का नाम संतोष कुमार, उसके बाद दिनेश कुमार, विधान कुमार, ज्ञान प्रकाश एवं राजेश कुमार सबसे छोटे हैं. इनका राजनीतिक उत्तराधिकारी बनकर राजेश कुमार ही सामने आए हैं. इसके अलावा दो पुत्री भी हैं- शारदा देवी एवं कंचन कुमारी.
अकलू राम महतो जमीन से जुड़े नेता थे. एक साधारण किसान परिवार से ताल्लुक रखने के कारण वे किसान-मजदूरों का दर्द और उनकी समस्याओं को भली-भांति समझ पाते थे. विस्थापितों का नेतृत्व करने के कारण विधायक और मंत्री रहते हुए भी राजनीति में इनका पूरा समय आंदोलन और संघर्षों में ही व्यतीत हुआ. उम्र के अंतिम ढलान में भी इनमें संघर्ष करने का वही जज्बा था. शरीर कमजोर हो चुका था, पर हौसले वैसा ही मजबूत था, जैसा आंदोलनों के चरम दिनों में हुआ करता था. सबसे खास बात यह कि वे बिल्कुल सरल और व्यवहारिक थे. मजदूर, किसान, विस्थापितों के साथ-साथ अन्य तभी वर्ग के लोगों के साथ इनका गहरा नाता जुड़ चुका था. चास के तेलीडीह मोड़ के पास एक कमरे का एक छोटा-सा कार्यालय इनका लंबे समय से संचालित था. एक पुराना टेबल और कुछ कुर्सियों से सज्जित इस छोटे से साधारण कार्यालय में हर दिन असंख्य लोग अक्लूराम से मिलने आया करते थे. उनकी समस्याओं को सुनते और समाधान के लिए प्रयास करते. जीवन के अंतिम समय तक इस कार्यालय में श्री महतो ने बैठकी लगाना नहीं भूला. यहां आना और लोगों से मिलना इनकी दिनचर्या बन चुकी थी.
Posted By : Guru Swarup Mishra