स्वतंत्रता सेनानियों ने विधानसभा चुनावों में कई बार आजमाई किस्मत, तीन बार जगबंधु भट्टाचार्य लड़े चुनाव, नहीं पूरा हुआ सपना
Freedom Fighters fight Elections : आजादी के बाद कई स्वतंत्रता सेनानियों ने चुनाव में अपनी किस्मत आजमाई. कई को तो सफलता मिली लेकिन कई ऐसे नेता रहे जिनके हाथ कभी सफलता नहीं लगी.
Freedom Fighters fight Elections: दीपक सवाल( कसमार) : देश की आजादी में अहम भूमिका निभाने वाले बोकारो के कई स्वतंत्रता सेनानियों ने विधानसभा चुनावों में किस्मत आजमायी. इनमें से कुछ को सफलता मिली, तो कई को दूसरे-तीसरे स्थान से संतोष करना पड़ा. तत्कालीन मानभूम जिला में हुए स्वतंत्रता आंदोलन में चास प्रखंड के सतनपुर गांव निवासी जगबंधु भट्टाचार्य एक प्रमुख नाम रहे हैं. देश की आजादी के बाद इन्होंने कई विधानसभा चुनावों में अपनी किस्मत आजमायी. हालांकि इन्हें किसी भी चुनाव में सफलता नहीं मिल पायी.
प्रथम विधानसभा चुनाव में काशीपुर महाराजा ने दर्ज की थी जीत
बता दें कि 1952 में हुए प्रथम विधानसभा चुनाव के समय यहां पाड़ा चास के नाम से दो विधानसभा क्षेत्र हुआ करते थे. विधानसभा क्षेत्र संख्या 309 एवं 310. विस क्षेत्र संख्या 309 में काशीपुर महाराजा देवशंकरी प्रसाद सिंह ने जीत दर्ज की थी. वहीं, विस क्षेत्र संख्या 310 में जगबंधु भट्टाचार्य ने किस्मत आजमायी. लेकिन उन्हें कांग्रेस के शरत मोची के हाथों करीब साढ़े चार हजार वोटों के अंतराल से हार का सामना करना पड़ा. शरद मोची को 11 हजार 169 तथा स्वर्गीय भट्टाचार्य को 6 हजार 595 वोट मिले थे.
जगबंधु भट्टाचार्य को 1957 में दोबारा मिली हार
वर्ष 1957 के विधानसभा चुनाव में भी स्वर्गीय भट्टाचार्य ने किस्मत आजमायी. पर इस बार भी उन्हें सफलता नहीं मिली. इस चुनाव में चास के चिकसिया निवासी एक अन्य स्वतंत्रता सेनानी हरदयाल शर्मा को सफलता मिली. कांटे के मुकाबले में पार्वती चरण महतो दूसरे तथा स्वर्गीय भट्टाचार्य तीसरे नंबर पर रहे थे. हरदयाल शर्मा को पांच हजार 123, पार्वती चरण महतो को चार हजार 650 तथा जगबंधु भट्टाचार्य को चार हजार 544 वोट मिले थे.
1962 में भी जगबंधु भट्टाचार्य का पूरा नहीं हुआ सपना
1962 के चुनाव में स्वर्गीय भट्टाचार्य तीसरी बार मैदान में उतरे, पर विधायक बनने की इच्छा इस बार भी पूरी नहीं हो सकी. इस चुनाव में पार्वती चरण महतो ने 11 हजार 703 वोट लाकर जीत दर्ज की थी. 6 हजार 756 वोट लाकर स्वतंत्र लड़ते हुए जगबंधु भट्टाचार्य दूसरे नंबर पर रहे थे.
यासीन अंसारी भी बने थे विधायक
गोमिया प्रखंड के करमाटांड़ निवासी स्वतंत्रता सेनानी लक्ष्मण मांझी व गोमिया के ही साड़म निवासी स्वतंत्रता सेनानी मो यासीन अंसारी भी विधायक बने थे. लक्ष्मण मांझी के पिता होपन मांझी भी प्रसिद्ध स्वतंत्रता सेनानी थे और उन्हें एमएलसी बनने का मौका मिला था. इनके बुलावा पर गांधीजी इनके घर आये थे. लक्ष्मण मांझी ने 1952 के चुनाव में तत्कालीन गिरिडीह सह डुमरी विधानसभा से लड़ते हुए 25 हजार 947 वोट लाकर जीत दर्ज की थी. इनके प्रतिद्वंद्वी सीएनपीजेपी के उम्मीदवार हेमलाल मांझी 23 हजार 323 वोट लाकर पराजित हुए थे. बता दें कि उस समय गिरिडीह सह डुमरी के नाम पर एक अन्य विस सीट (संख्या 268) भी थी. दूसरी ओर, मो यासीन अंसारी देश की आजादी से पहले 1946 में बिहार विधानसभा के विधायक बने थे, जो आजादी के बाद 1952 के चुनाव तक रहे. इनका निधन 16 सितंबर 1975 को हुआ था और बिहार विधानसभा में शोक प्रस्ताव लिया गया था.
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कसमार के स्वतंत्रता सेनानी केपी चौबे ने भी लड़ा था चुनाव
बोकारो जिला के कसमार निवासी काशीश्वर प्रसाद चौबे भी स्वतंत्रता सेनानी के तौर पर एक चर्चित नाम रहे हैं. सीसीएल बेरमो में कार्यालय अधीक्षक की नौकरी छोड़कर स्वतंत्रता आंदोलन में कूदने वाले स्वर्गीय चौबे ने 1952 के विधानसभा चुनाव में किस्मत आजमायी थी. उस समय यह क्षेत्र जरीडीह (पेटरवार) विधानसभा में शामिल था, और इसका विस्तार गोला-रामगढ़ तक था. स्वर्गीय चौबे यह चुनाव भले नहीं जीत पाए, पर उन्होंने छोटानागपुर संथाल परगना जनता पार्टी के उम्मीदवार महाराजा कामाख्या नारायण सिंह को कड़ी टक्कर दी. कामाख्या नारायण 12 हजार 87 वोट लाकर चुनाव जीते थे, जबकि स्वर्गीय चौबे 8 हजार 354 वोटों के साथ दूसरे नंबर पर थे. बाद में जरीडीह सीट दो टर्म (1957 एवं 1962) अनुसूचित जनजाति (एसटी) के लिए आरक्षित हो जाने के बाद केपी चौबे दोबारा विधानसभा चुनाव नहीं लड़ सके. दूसरी ओर, महाराजा कामाख्या नारायण भी स्वतंत्रता आंदोलन में एक बड़ा नाम थे. रामगढ़ अधिवेशन कराने में उनकी भूमिका थी तथा इसी अधिवेशन में अपना राजपाट राष्ट्र को अर्पित करने की घोषणा की थी. इन्होंने जरीडीह के अलावा अन्य कई सीट से भी जीत दर्ज की थी.
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