Bokaro News: झारखंड के बोकारो जिला अंतर्गत नावाडीह प्रखंड के करीब दस स्थानों पर मां दुर्गा की पूजा-अर्चना होती आ रही है. इनमें भलमारा का आयोजन ऐतिहासिक है तो दहियारी का दुर्गा मंदिर जागृत माना जाता है. सर्वाधिक रोचक है लहिया की पूजा. यहां प्रतिमा स्थापित नहीं की जाती. सभी आयोजनों की अपनी खासियत है, जो विशेष पहचान और प्रतिष्ठा दिलाती है. इसी परिदृश्य को समेटती है राकेश वर्मा की आज की रिपोर्ट.
नावाडीह में सबसे पुराना दहियारी का दुर्गा मंदिर जागृत माना जाता है. आसपास के लोगों की इससे गहरी आस्था जुड़ी हुई है. दुर्गा पूजा के दौरान यहां मां के चरणों में फल-फूल ही नहीं, बल्कि सोने-चांदी के जेवरात भी चढ़ाये जाते हैं. ये जेवरात बंग समाज के मुखिया के पास रखे जाते हैं. विसर्जन के बाद यहां भोंगा मेला लगता है.
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भलमारा में लगभग डेढ़ सौ साल से दुर्गा पूजा हो रही है. यहां डेढ़ सौ साल पहले जटली दीदी ने चार आना से पूजा शुरू की थी. तेलो के हटियाटांड़ में 1965 से पूजा होती है. सप्तमी से दशमी तक यहां मेला भी लगता है. पपलो में भी 60 साल से अधिक समय से आयोजन हो रहा है. कंचनपुर बंगाली टोला में भी पूजा होती है. गुंजरडीह की पूजा आजादी के पहले से हो रही है. यहां दशमी के दिन मेला लगता है. नावाडीह थाना परिसर से सटे दुर्गा मंदिर में वर्ष 1956 से पूजा शुरू हुई. भंडारीदह की एसआरयू कॉलोनी में 60 के दशक से पूजा हो रही है.
नावाडीह प्रखंड अंतर्गत ऊपरघाट स्थित लहिया में नवमी को बलि देने की प्रथा है. यहां मां की प्रतिमा स्थापित नहीं की जाती. अष्टमी के दिन गाजे-बाजे के साथ श्रद्धालु नजदीक के तालाब में जाकर पूजा करते हैं. एक महिला माथे पर कलश लेकर चलती है और सैकड़ों महिलाएं पीछे से दंडवत करती चलती हैं. सभी श्रद्धालु तालाब से जल लेकर मंदिर आते हैं. पहले यहां भैंसा की बलि दी जाती थी, जिसे कुछ वर्ष पूर्व ग्रामीणों ने बंद करवा दिया. परंपरा के मुताबिक बकरे की बलि देनी पड़ती थी. यहां देवी निराकार है. ऊपरघाट के सिर्फ हरलाडीह में प्रतिमा स्थापित कर पूजा-अर्चना की जाती है.
चंद्रपुरा प्रखंड के चिरुडीह गिरि टोला स्थित दुर्गा मंडप में ब्रिटिश काल से मां की पूजा होती आ रही है. करीब 60 घरों वाले इस गांव में पहले हर घर से एक-एक बकरे की बलि दी जाती थी. बाद में ग्रामीणों ने इस प्रथा को बंद करा दिया. यहां वैष्णवी पूजा शुरू हुई. इसी तरह तुपकाडीह स्थित स्टेशन रोड दुर्गा मंदिर में भी वर्ष 2003 से लोगों ने वर्षों से आ रही बलि प्रथा को बंद कर वैष्णवी पूजा की शुरुआत की. इसके अलावा तुपकाडीह से ही कुछ दूर स्थित माराफारी के जमींदार ठाकुर सरयू प्रसाद सिंह की हवेली के समीप प्राचीन दुर्गा मंदिर में भी वर्ष 2011 से भैंसा की बलि की परंपरा बंद कर दी गयी.