Happy Holi 2021, बोकारो न्यूज, (दीपक सवाल) : होली रंगों का त्यौहार है. होली के रंगों में ही इस त्यौहार की खुशियां समायी हैं. रंगों के बिना होली की कल्पना भी नहीं की जा सकती, लेकिन झारखंड के बोकारो जिले के कसमार प्रखंड के दुर्गापुर गांव के लोग होली नहीं खेलते. होली के दिन ये रंग-अबीर को हाथ तक नहीं लगाते. इस गांव में सदियों से यही परंपरा है. इसके पीछे गांव में कई तरह की मान्यताएं हैं.
कहा जाता है कि करीब साढ़े तीन सौ साल पहले दुर्गापुर में राजा दुर्गा प्रसाद देव का शासन था. गांव की ऐतिहासिक दुर्गा पहाड़ी की तलहटी पर उनकी हवेली थी. वे काफी जनप्रिय थे. पदमा (रामगढ़) राजा के साथ हुए युद्ध में वे सपरिवार मारे गए थे. वह होली का समय था. इसी गम में लोग तब से होली नहीं खेलते. ऐसी मान्यता है कि होली खेलने से गांव में कोई अप्रिय घटना घटित होती है. कुछ अन्य मान्यताएं भी हैं. दुर्गा पहाड़ी को बडराव बाबा के नाम से भी जाना जाता है. ग्रामीणों के अनुसार, बडराव बाबा रंग और धूल पसंद नहीं करते. यही कारण है कि उनके नाम पर पूजा में बकरा व मुर्गा भी सफेद रंग का ही चढ़ाया जाता है. बडराव बाबा की इच्छा के विपरीत गांव में रंग-अबीर का उपयोग करने पर उनके क्रोध का सामना गांव को करना पड़ता है. विभिन्न प्रकार की अनहोनी गांव में होती है. बडराव बाबा नाराज न हों, इसलिए ही गांव में होली नहीं मनायी जाती.
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होली नहीं खेलने के पीछे कुछ ग्रामीणों का यह भी कहना है कि करीब 200 साल पहले यहां मल्हारों की एक टोली आकर ठहरी थी. उस वर्ष मल्हारों ने यहां जमकर होली खेली थी. उसके दूसरे दिन से ही गांव में काफी अप्रिय घटनाएं घटित होने लगी और महामारी फैल गई. इस घटना के बाद से गांव के लोगों ने होली खेलनी हमेशा के लिए बंद कर दी.
होली नहीं मनाना केवल गांव की सीमा तक ही प्रतिबंधित है. ऐसा नहीं कि गांव वाले दूसरी जगह होली नहीं खेल सकते. अगर कोई चाहे तो दूसरे गांवों में जाकर होली मना सकता है. कुछ लोग मनाते भी हैं. कोई ससुराल तो कोई मामा के घर, कोई मित्र के यहां तो कोई किसी अन्य रिश्तेदार के घर जाकर होली खेलते हैं. दूर प्रदेशों में रहने वाले युवक भी होली जमकर खेलते हैं, लेकिन जिस वर्ष गांव में रहते हैं, रंग छूते तक नहीं.
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दुर्गापुर में ब्याह कर आई बहुओं की होली रंगहीन हो गयी है. शादी से पहले मायके में तो खूब होली खेलती थीं, लेकिन दुर्गापुर में ब्याहने के बाद होली नहीं खेल पाती हैं. कुछ बहुएं होली खेलने मायके अवश्य चली जाती हैं, लेकिन ऐसा किसी-किसी साल ही हो पाता है. सावित्री देवी ने बताया कि उनका मायके करमा गांव में है. शादी से पहले वहां खूब होली खेलती थीं. शादी के बाद 18 साल से होली नहीं खेल पायी हैं. सुबा देवी का मायके टांगटोना है. उन्होंने कहा कि कई बार होली में मायके नहीं जा पाती. तब उदासी तो रहती है, लेकिन गांव की परंपरा तो निभानी ही होगी. कसमार से ब्याह कर आई नसीमा बीबी की कहानी कुछ और है. शादी हुए काफी बरस हो गये, लेकिन होली खेलने कभी मायके नहीं गयी जबकि शादी से पहले जमकर होली खेलती थीं. कहती हैं कि जिस गांव की जो परंपरा है, उसे तो माननी ही पड़ेगी.
गांव की बेटियों की बात ठीक इसके विपरीत है. बहुएं जहां शादी से पहले होली खेलती थीं. वहीं, गांव की बेटियां शादी के बाद होली खेल पाती हैं. संगीता कुमारी व सुनीता कुमारी ने कहा कि होली के बारे में केवल सुना है. खेलने का मौका कभी नहीं मिला. हां, इस बात की खुशी है कि शादी के बाद ससुराल में होली खेलने को मिलेगा. मीना कुमारी व अन्य युवतियों ने कहा कि होली नहीं खेल पाने का मलाल तो रहता है, पर परंपरा निभानी पड़ती है. गांव की अन्य लड़कियां भी कुछ ऐसा ही कहती हैं.
कुछ ग्रामीणों ने बताया कि वर्ष 1961-62 में कुछ लोगों ने इस परंपरा को बकवास बताते हुए गांव में होली खेली थी. अगले ही दिन से गांव में अप्रिय घटनाएं होने लगी थी. कई मवेशी मर गये थे. लोग बीमार पड़ने लगे थे. डर कर लोग दूसरे गांवों में भाग गये थे. पाहन ने बडराव बाबा की पूजा-अर्चना की, तब जाकर सब-कुछ सामान्य हुआ था और लोग गांव लौटे थे. तब से फिर कभी किसी ने होली नहीं खेली है.
दुर्गापुर आबादी के दृष्टिकोण से बोकारो जिले के कसमार प्रखंड का सबसे बड़ा गांव है. कुल 12 टोला में फैला हुआ है. प्रखंड में मंजूरा के बाद एकमात्र ऐसा गांव है, जो कुल चार सीट में फैला है. एक सीट में, यानी 108 एकड़ में तो केवल दुर्गा पहाड़ी फैली हुई है. केवल दुर्गापुर पंचायत ही नहीं, बल्कि यह पहाड़ी पूरे इलाके की आस्था का केंद्र है. इसके नाम पर पूजा होती है. मन्नत पूरी होने पर बकरा व मुर्गा चढ़ाया जाता है.
पाहन (पुजारी) बोधन मांझी व मुनु मांझी ने कहा कि बडराव बाबा को रंग व धुल पसंद नहीं, इसलिए दुर्गापुर के ग्रामीण होली नहीं मनाते. बाबा की इच्छा का उल्लंघन करने वालों को अनहोनी का सामना करना पड़ा है. बाबा के प्रति अगाध आस्था का पालन करते ही इस दिन यहां के लोग रंग-अबीर छूना भी पसंद नहीं करते.
गांव के विदेशी महतो (उम्र-85 वर्ष) के अनुसार, बडराव बाबा की इच्छा के अनुसार ही गांव में होली नहीं खेली जाती है. करीब 70 साल पहले कुछ मल्हार यहां आकर दो अलग-अलग जगहों पर ठहरे थे. परपंरा के विपरीत मल्हारों ने खूब होली खेली. उसी दिन पांच मल्हारों की मौत हो गयी. गांव में दो दर्जन से अधिक मवेशी (बैल) मारे गये. अन्य अप्रिय घटनाएं भी होने लगी.
पूर्व मुखिया अमरलाल महतो कहते हैं कि किसी भी गांव की परंपरा बड़ी चीज होती है. उसका पालन करना ही पड़ता है. बात आस्था से जुड़ी हो तो और भी गहराई से पालन करना पड़ता है. आस्था के कारण ही होली नहीं मनायी जाती. पर, यहां के लोग दूसरे गांवों में होली खेल सकते हैं. कुछ लोग ऐसा करते भी हैं.
Posted By : Guru Swarup Mishra