झारखंड : कसमार की सरस्वती सिंह बनीं बोकारो की ‘आयरन लेडी’, महिला हिंसा के खिलाफ लगातार उठाती रही हैं आवाज
बोकारो के कसमार क्षेत्र की 76 साल की सरस्वती सिंह 'आयरन लेडी' के नाम से मशहूर है. महिलाओं के मान-सम्मान, हक-इंसाफ एवं कुप्रथा-कुरीतियों के खिलाफ लगातार लड़ाई लड़ रही हैं. ढेड़ दशक पहले क्षेत्र के पहले महिला किसान क्लब का गठन किया.
कसमार (बोकारो), दीपक सवाल : पुरुष प्रधान मानसिकता से प्रभावित भारतीय समाज में महिलाओं के साथ अन्याय, अत्याचार और शोषण का इतिहास हजारों साल पुराना है. इतिहास इस बात का भी गवाह है कि समय-समय पर इसी भारतीय समाज में महिलाओं के बीच से ही निकलकर कई वीरांगनाओं ने नेतृत्व दिया और बदलाव की वाहक बनीं. कसमार प्रखंड की सिंहपुर पंचायत अंतर्गत करमा (भंडारडीह) गांव की सरस्वती सिंह के रूप में बोकारो को भी एक ऐसा ही नेतृत्व मिला. महज 14 साल की उम्र में महिला हिंसा के खिलाफ आवाज उठाने वाली यह महिला आज 76 साल की उम्र में भी महिलाओं के मान-सम्मान, हक-इंसाफ एवं कुप्रथा-कुरीतियों के खिलाफ लड़ाई लड़ रही हैं.
जिद और जुनून ने दिलायी पहचान
पिछले 60 सालों से वह महिला हिंसा के खिलाफ आवाज की प्रतीक बनी हुई हैं. छह दशक तक लगातार महिलाओं के हक-सम्मान व न्याय के लिए संघर्ष करना कोई आसान काम नहीं. साधारण-सी दिखने वाली असाधारण सरस्वती सिंह जैसी जिद्दी और जुनूनी महिलाएं ही असंभव को संभव करती हैं. यही कारण है कि वह इस क्षेत्र की ‘आयरन लेडी’ के रूप में भी जानी जाती हैं.
घर से शुरू हुई इंसाफ की लड़ाई
सरस्वती ने पहली बार वर्ष 1961 में महिला हिंसा के खिलाफ आवाज तब बुलंद की थी, जब इनकी मौसेरी बहन पर पति द्वारा जुल्म ढाये जा रहे थे. बहन के साथ हो रहे इस अत्याचार को देख रहा नहीं गया और उस छोटी-सी उम्र में ही इसके खिलाफ उठ खड़ी हुई. प्रारंभ में बच्ची समझकर जीजा ने इन्हें हल्के में लिया और थप्पड़ जड़कर आवाज दबाने की कोशिश की. वह माननेवाली कहां थी, उन्होंने हर हाल में बहन को न्याय दिलाने की ठान ली. तब किसी ने सोचा भी नहीं था कि यह छोटी-सी लड़की अपनी बहन को न्याय दिलाने की लड़ाई जीतते हुए एक बड़ी जंग के रास्ते पर चलेगी. इनके तेवर के सामने आखिरकार जीजा को झुकना पड़ा. समाज के गण्यमान्य लोगों की उपस्थिति में बांड भराने के बाद बहन ने अपने पति के साथ नयी जिंदगी शुरू की. इस क्षेत्र में महिला हिंसा की यह कोई पहली या आखिरी घटना नहीं थी. आसपास में आये दिन हो रही महिला उत्पीड़न की घटनाएं सरस्वती जी को उद्वेलित करती रहीं. फिर तो महिलाओं के लिए लड़ाई लड़ना ही इनके जीवन का ध्येय बन गया.
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समय-समय पर इसी भारतीय समाज में महिलाओं के बीच से ही निकलकर कई वीरांगनाओं ने नेतृत्व दिया और बदलाव की वाहक बनीं. सरस्वती सिंह के रूप में बोकारो को भी एक ऐसा ही नेतृत्व मिला. महज 14 साल की उम्र में महिला हिंसा के खिलाफ आवाज उठाने वाली यह महिला आज 76 साल की उम्र में भी महिलाओं के मान-सम्मान, हक-इंसाफ एवं कुप्रथा-कुरीतियों के खिलाफ लड़ाई लड़ रही हैं.
देश भर में कर रहीं महिलाओं की आवाज बुलंद
इस क्षेत्र में महिला किसान क्लब गठित कराने में भी इनकी अहम भूमिका रही है. इनके ही प्रयास से खिजरा गांव में ढेड़ दशक पहले क्षेत्र का पहला महिला किसान क्लब बना था. उसके बाद ही अन्य जगहों पर भी महिला किसान क्लब का गठन कराया. इसके अलावा गांवों में एसएचजी गठित कर महिलाओं को स्वावलंबी बन जीना सिखाया है. करीब 1400 स्वयं सहायता समूहों का नेतृत्व इन्होंने किया. इनमें 750 समूह इन्होंने बनवाया है. 22 जनवरी से 31 मार्च, 1995 तक नेशनल यूथ प्रोजेक्ट की सद्भावना रेल यात्रा में भी शामिल हुईं. झारखंड के विभिन्न जिलों व गांवों-शहरों के अलावा कोलकाता, मुंबई, गोवा, ओड़िशा, दिल्ली, बनारस, मथुरा, विशाखापट्टनम्, अहमदाबाद, हिमाचल, अजमेर, उदयपुर (राजस्थान) आदि जगहों पर भी महिलाओं के लिए आवाज बुलंद कर चुकी हैं.
इंसाफ की लड़ाई बन गयी दिनचर्या
उम्र की इस ढलान पर भी पतली-दुबली काया वाली सरस्वती सुबह ही साइकिल लेकर निकल पड़ती है. आर्थित तंगी के बावजूद गांवों में घूम-घूम कर महिलाओं के मान-सम्मान और हक-इंसाफ की लड़ाई लड़ना इनकी दिनचर्या है. इन्होंने साइकिल से सफर की शुरुआत 1957 में ही कर दी थी. तब इस क्षेत्र की लड़कियां साइकिल नहीं चलाती थीं या कहें घर-परिवार से चलाने की इजाजत नहीं थी. इन्हें साइकिल चलाता देख लोग अचरज में पड़ जाते थे. प्रोत्साहित करने की बजाय कुछ लोग चिढ़ाते व मजाक तक उड़ाते थे.
सांघा प्रथा को खत्म कराने में अहम भूमिका
इन क्षेत्रों में सांघा प्रथा को खत्म करने-कराने में भी इनकी भूमिका महत्वपूर्ण रही है. इस प्रथा के तहत पुरुष एक से अधिक विवाह करने के लिए स्वतंत्र थे. पहली पत्नी का परित्याग भी कर सकते थे. इससे कई महिलाओं का जीवन बर्बाद हो रहा था. सरस्वती ने आइना संस्था के बैनर तले नुक्कड़ नाटक व अन्य माध्यमों से इस प्रथा के खिलाफ व्यापक अभियान चलाया. कई सालों के संघर्ष के बाद इस प्रथा को खत्म कराने में सफल रहीं.
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संस्थाओं से मिला सक्रियता का प्लेटफॉर्म
महिलाओं के हक, अभिमान व उनके स्वावलंबन के लिए जीना ही इनकी मंजिल रही है. इसके लिए सामाजिक संस्थाओं से भी जुड़कर कार्यों को गति दी. वर्ष 1987 में फ्लैक और आइना नामक संस्था से जुड़कर महिला हिंसा के खिलाफ खुलकर सामने आ गयीं. उन दिनों उक्त दोनों संस्थाओं ने बोकारो जिला के कसमार, जरीडीह और आसपास के प्रखंड में महिला हिंसा के खिलाफ जोरदार अभियान चलाया था. उसमें सरस्वती जी की भूमिका खास थी. इन्होंने डायन के नाम पर प्रताड़ना की शिकार होने वाली महिलाओं के लिए भी विशेष तौर पर काम किया. उन दिनों कहीं डायन बताकर किसी निर्दोष महिला को मैला पिलाया जाता था तो कहीं जान ही ले ली जाती थी. महिलाएं डायन के नाम पर कई तरीके से तंगो-तबाह हो रही थीं. सरस्वती जी ने संस्था के साथ जुड़कर डायन के नाम पर प्रताड़ना की घटनाओं को काफी हद तक खत्म कराने में अहम भूमिका निभायी. इसके लिए नाटक, गीत, गोष्ठी, सेमिनार व जनसंपर्क आदि के जरिये जागरूकता से लेकर कानूनी लड़ाई तक लड़ी.
एकल महिलाओं के पक्ष में सशक्त आवाज
फिलहाल सरस्वती राष्ट्रीय एकल नारी अधिकार मंच की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की सदस्य हैं. इसके बैनर तले एकल महिलाओं के लिए लड़ाई लड़ रही हैं. कसमार-जरीडीह ही नहीं, पूरे झारखंड में एकल महिलाओं के लिए आवाज बनकर उभरी हैं. उनकी तकलीफों को दूर करने के लिए अपने स्तर से संघर्ष कर रही हैं. गांव-गांव में घूमकर एकल महिलाओं के लिए सर्वे किया है. भूमिहीन एकल महिलाओं के आवासीय भूखंड एवं आजीविका हेतु सामुदायिक खेती के लिए खेती योग्य भूमि उपलब्ध कराने को लेकर संघर्षरत हैं. इनका मानना है कि जमीन उपलब्ध होने से एकल महिलाओं की आजीविका संबंधी परेशानी दूर हो सकती है. इस मांग को लेकर पूर्व राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल, कांग्रेस की राष्ट्रीय अध्यक्ष सोनिया गांधी एवं केंद्रीय मंत्री जयराम रasमेश से भी मिल चुकी हैं. विधवा महिलाओं को 40 वर्ष की आयु के बाद ही पेंशन मिलने की अनिवार्यता को खत्म करने की वकालत की. इनका कहना था कि देश में लड़कियों की शादी की उम्र 18 वर्ष निर्धारत है. 18 वर्ष की उम्र में विवाह के एक वर्ष बाद ही अगर कोई विधवा हो जाए तो पेंशन के लिए 21 वर्षों का इंतजार न्यायोचित नहीं है. अब आयु सीमा की यह अनिवार्यता हटा दी गयी है.
15 अगस्त, 1947 को हुआ जन्म
15 अगस्त, 1947 को देश की आजादी के दिन लालबिहारी सिंह और सुंदरीबाला देवी की चौथी संतान के रूप में इनका जन्म हुआ है. इनकी प्रारंभिक पढ़ाई बरोरा (कतरास) में हुई. उनके पिता वहां बीसीसीएल में कार्यरत थे. इसके बाद मैट्रिक तक की पढ़ाई हरनाद (कसमार) से की. हजारीबाग से इंटर की पढ़ाई पूरी की. महिला-पुरुष समानता की बात छात्र काल से करनी शुरू कर दी थी.
समाजसेवा की अद्भुत ललक
जयंत मुनि जी महाराज से मिल्क पाउडर और खाद्य सामग्री लेकर उसे सिर पर लाद पैदल ही पेटरवार से खैराचातार (करीब 18 किलोमीटर) तक आती थी और गांवों में गरीबों एवं जरूरतमंदों के बीच बांटती थी. फिलहाल, वो श्रमजीविक महिला समिति, जमशेदपुर से भी जुड़ी हैं. इसके तहत टांगटोना पंचायत के चार गांवों में एकल महिलाओं के नेतृत्व क्षमता विकास एवं आजीविका पर काम कर रही है.