Jharkhand news: मंडा पर्व शुरू, भगवान शिव-पार्वती और बूढ़े बाबा की होती आराधना, जानें इसकी महत्ता
jharkhand news: झारखंडी संस्कृति का अभिन्न अंग है मंडा पर्व. आदिवासी, आदिम जनजाति एवं कुड़मि जनजातियों का पर्व है मंडा. बोकारो के सिंहपुर में श्रद्धालुओं का जनसैलाब उमड़ता है. इस दौरान भगवान शिव-पार्वती और बूढ़े बाबा की पूजा होती है.
Jharkhand news: झारखंडी संस्कृति का एक अभिन्न अंग है मंडा पर्व. इसे चड़क पूजा, शिव पूजा, भोक्ता पर्व, विशु पर्व जैसे नामों से भी जाना जाता है. अलग-अलग जगहों पर विभिन्न दिनों में लगभग एक माह तक इस पर्व को मनाने का प्रचलन है. वैसे तो यह मूलतः आदिवासियों, आदिम जनजातियों एवं कुड़मि जनजातियों का पर्व है, पर कालांतर में सदानों के बीच भी यह समान रूप से प्रचलित हुआ है और दोनों समुदाय उसी उत्साह से मनाते हैं. बोकारो जिला में दर्जनों जगहों पर इसे धूमधाम से मनाने की परंपरा सदियों से चली आ रही है. कसमार प्रखंड का ऐतिहासिक सिंहपुर शिवालय भी उनमें एक है. यहां 12 से 15 अप्रैल तक यह पर्व मनाने की परंपरा है.
सिंहपुर में 18वीं सदी में शुरू हुआ पर्व
बताया जाता है कि सिंहपुर शिवालय में स्थापित शिवलिंग की उत्पत्ति-प्राप्ति 18वीं सदी में सिंहपुर के एक महतो परिवार में दही की हांडी में हुई थी. घर की महिलाएं इसे साधारण पत्थर अथवा किसी की शरारत समझकर दही की हांडी से बाहर निकाल देती थी और अगले दिन वह दोबारा उसी हांडी में मिलता था. कई दिनों तक यह सिलसिला चलने के बाद नुना ओझा नामक पुजारी ने इसकी पहचान शिवलिंग के रूप में की. इसके बाद खैराचातर-सिंहपुर के तत्कालीन राजा बाबू जगन्नाथ सिंहदेव ने ग्रामीणों के आग्रह पर गांव में शिवलिंग की स्थापना की. थोड़े समय बाद मंदिर का निर्माण भी हुआ. शिवलिंग की स्थापना के अलावा 18वीं सदी में ही मंडा पर्व शुरू कराने में भी जगन्नाथ सिंहदेव की अहम भूमिका थी. आज भी उनके वंशज इस पर्व के कई रस्मों से जुड़े हुए हैं.
बूढ़ा बाबा के लगते नारे
पर्व के अंतिम दिन 14 अप्रैल को पीठ पर लोहे की कील छिदवाकर उसके सहारे करीब 50 फीट की ऊंचाई पर झूलने के दौरान ‘भक्तिया’ अथवा ‘भगता’ भगवान शिव के साथ-साथ जगन्नाथ सिंह देव और उनके वंशज दिगंबर नाथ सिंहदेव, विश्वनाथ सिंहदेव आदि के जयकारे लगाते हैं. इसके अलावा ‘बूढ़ा बाबा’ के जयकारे लगाने की भी परंपरा है. इसके पीछे कुछ लोगों का तर्क है कि बूढ़ा बाबा के रूप में पुरखों के जयकारे लगाए जाते हैं. बता दें कि इस पर्व में उपवास रखने वाले पुरुषओं को भोक्ता अथवा भगता एवं महिलाओं को सोखताइन कहा जाता है.
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सभी समुदायों की रहती है भागीदारी
इस पर्व की एक विशेषता यह भी है कि इसमें सभी जाति-समुदायों की भागीदारी रहती है. जगन्नाथ सिंहदेव ने अपनी उच्च स्तरीय सामाजिक सोच के तहत गांव के प्रायः सभी जाति-समुदायों को अलग-अलग जागीरदारी अथवा जिम्मेदारियां सौंपकर इस पर्व के बहाने समाज को एक सूत्र में बांधने का भी काम किया था. ऐसा दावा है कि जगन्नाथ सिंहदेव अथवा उनके पूर्वजों का संबंध पंचकोट (काशीपुर) राजघराना से रहा है.
श्रद्धालुओं का उमड़ता है जनसैलाब
सिंहपुर के मंडा पर्व में श्रद्धालुओं का जनसैलाब उमड़ पड़ता है. 12 अप्रैल को संजोत के साथ ही श्रद्धालुओं की भीड़ जुटानी शुरू हो जाती है. झारखंड के विभिन्न जिलों के अलावा सीमावर्ती बंगाल से भी बड़ी संख्या में श्रद्धालु आते हैं. सैकड़ों श्रद्धालु मिलों दूर से दंडवत करते शिवालय तक पहुंचते हैं. 12 की शाम को लोटन सेवा में एक हजार से अधिक भक्तिया शामिल होते हैं.
सखुआ पेड़ व गुलंज फूल का है महत्व
इस पर्व में सखुआ पेड़ और गुलंज फूल की भी अहम भूमिका होती है. सखुआ पेड़ का खूंटा, पाट आदि साल भर तालाब में डूबाकर रखा जाता है. पर्व के समय इसे तालाब से खोजकर बाहार निकाला जाता हैं. उसी खूंटा पर भक्तिया लोहे की कील छिदवाकर झूलने की परंपरा निभाते हैं. मालूम हो कि सखुआ लकड़ी की यह विशेषता है कि वह पानी में सड़ता-गलता नहीं है. वह अधिक टिकाऊ होता है. इसी तरह गुलंज फूल का उपयोग सभी श्रद्धालु करते हैं. पूजा में तो उपयोग होता ही है, सभी भक्तियां उसका माला भी पहनते हैं.
रिपोर्ट : दीपक सवाल, कसमार, बोकारो.