स्मृति विशेष… राजनीति में समरेश सिंह का था अंदाज-ए-बयां, बंगाली पाड़ा से शुरू हुआ था सियासी सफर
राजनीति में समरेश सिंह का अपना अलग अंदाज और अलग शैली थी. एकीकृत बिहार का जमाना हो या अलग झारखंड राज्य का, उनके जुझारू तेवर कभी कम नहीं हुए. यहां तक कि उम्र हो जाने के बाद भी वह राजनीतिक गतिविधियों में हिस्सा लेते थे. धनबाद, बोकारो, गिरिडीह का शायद ही कोई ऐसा चप्पा होगा जिससे समरेश परिचित नहीं होंगे.
समरेश सिंह उर्फ दादा वैसे तो मूलतः चंदनकियारी के निवासी थे और राजनीति में पहचान और ऊंचाई बोकारो की राजनीति से हासिल की, लेकिन मूल रूप से देखें तो इनका सियासी जीवन बाघमारा से शुरू हुआ है. यूं कहें, बाघमारा में हुए आंदोलन ने इन्हें राजनीति में शुरुआती पहचान दिलाई थी. यह 1973 की बात है. दादा नौजवान थे. बाघमारा बाजार के बंगालीपाड़ा में क्रांतिकारी युवा दल बनाकर अपनी राजनीति गतिविधियां शुरू की. बंगालीपाड़ा के भूतबंगला में कार्यालय खोला गया था. वहीं से संगठन की गतिविधियां संचालित होती थीं. संगठन में अनेक युवा जुड़ चुके थे. सबके मन में अपने क्षेत्र के लिए कुछ कर गुजरने का जज्बा था और उस जज्बे को जगाने में समरेश की अहम भूमिका थी.
संगठन के साथियों ने अपने क्षेत्र के विकास की अनेक योजनाएं बनायी थीं. उसी में बैंक की स्थापना कराना भी शामिल था. दरअसल, उस समय तक बाघमारा में कोई बैंक नहीं था. संगठन अथवा समरेश ने इसे ही अपना पहला मुद्दा बनाया और बाघमारा में बैंक खोलने की मांग को लेकर आंदोलन शुरू कर दिया. बता दें कि यह वह दौर था, जब जयप्रकाश नारायण की अगुवाई में देशभर में अलग अलग आंदोलन खड़ा हो रहा था. पर दादा बिना किसी शोर-शराबे के युवाओं को संगठित कर बैंक के मुद्दे पर आंदोलन खड़ा कर दिया. इसके तहत नावागढ़ चौक को जाम कर दिया गया. उस समय केबी सक्सेना डीसी थे. उनके निर्देश पर पुलिस ने दर्जनों आंदोलनकारियों को गिरफ्तार कर जेल भेज दिया. आंदोलनकारी एक महीने तक जेल के राजनीतिक वार्ड में रहे. जेल में आंदोलनकारियों से ठीक व्यवहार नहीं हो रहा था. इससे नाराज आंदोलनकारी बंदियों ने बेमियादी हड़ताल शुरू कर दी. हालांकि, इस दौरान कुछ मजेदार वाक्या भी हुआ.
वह यह कि अनशनकारी कैदियों की जब चिकित्सकीय जांच करायी जा रही थी तो उन सभी का वजन बढ़ता हुआ और सेहत ठीकठाक मिल रहा था. इससे चिकित्सक और जेलर सभी हैरान थे कि आखिर माजरा क्या है? समरेश ने अपने स्तर से पड़ताल शुरू की तो किसी ने बताया कि अनशनकारी बंदी सुबह वार्ड के पीछे खेत में लगे मटर, टमाटर, मूली आदि को तोड़ कर खा लेते हैं. समरेश ने खेत में जाकर देखा तो बात सच सही निकली. इसके बाद वह कार्यकर्ताओं को फटकार लगायी. दादा की नाराजगी देखकर कार्यकर्ताओं ने कहा कि भूख बर्दाश्त करना मुश्किल हो जाता है. फिर क्या करें? नहीं खाएंगे तो अनशन के चक्कर में जान ही चली जायेगी. कार्यकर्ताओं की बात सुनकर समरेश भी भावुक होकर रो पड़े थे. हालांकि, इन घटनाओं के बाद जेलर से वार्ता हुई और बेहतर भोजन आदि की सुविधा मिलने के बाद अनशन खत्म हो गया.
जेल से बाहर निकलने के बाद समरेश आपातकाल में पुनः गिरफ्तार कर लिये गये. इधर, इसी अवधि में समरेश ने बोकारो में भी मजदूर और विस्थापितों के बीच उनके हक अधिकार के लिए संघर्ष करना शुरू कर दिया था. इससे उन्हें बोकारो में बड़ी पहचान मिली और एक मजदूर और विस्थापित नेता के रूप में तेजी से उभरे थे. बोकारो के मजदूर और विस्थापितों के भरोसा बन चुके थे. उनके नेतृत्व में विस्थापित और मजदूर आंदोलन जोर पकड़ चुका था. समरेश अब बोकारो में भी किसी परिचय का मोहताज नहीं रह गये थे. इसी का परिणाम है कि 1977 में जब निर्दलीय चुनाव लड़े तो राष्ट्रव्यापी जेपी आंदोलन का प्रभाव भी इनके सामने बेअसर साबित हुआ और जनता पार्टी के उम्मीदवार को निर्दलीय लड़कर भी हरा दिया था. इसके बाद तो समरेश ने राजनीति में फिर कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा. देखते ही देखते 1980 और 1990 के दशक में वह राष्ट्रीय स्तर पर अपनी पहचान बना चुके थे. न केवल चार बार विधायक बने बल्कि मंत्री बनने का भी अवसर मिला.
आपातकाल में माफी मांगने से किया इंकार
देश में आपातकाल के दौरान समरेश सिंह ने अपनी बीमार पत्नी की देखभाल करने की इच्छा के बावजूद सरकार से माफी मांगने से इनकार कर दिया था. 1976 में समरेश सिंह जेल में थे. उनकी पत्नी टीबी के कारण गंभीर रूप से बीमार हो गईं और उन्हें तत्काल देखभाल की आवश्यकता थी. जगरनाथ मिश्र के नेतृत्व वाली तत्कालीन बिहार सरकार ने शर्त रखी कि अगर सिंह माफी मांगते हैं, तो उन्हें रिहा कर दिया जाएगा.
समरेश सिंह के सुझाव पर कमल फूल बना था भाजपा का चुनाव चिह्न
समरेश सिंह लगभग 45-50 वर्षों तक बोकारो की राजनीति के केंद्र बिंदु रहे हैं. 1977 के विधानसभा चुनाव में समरेश सिंह ने निर्दलीय प्रत्याशी के रूप में बोकारो विधानसभा से चुनाव लड़ा था. इसी वर्ष विधानसभा क्षेत्रों के नए परिसीमन में बोकारो विधानसभा अस्तित्व में आया था और समरेश बिना किसी दल के चुनाव मैदान में उतर गए थे. बतौर निर्दलीय प्रत्याशी इन्हें चुनाव चिह्न के रूप में कमल का फूल आवंटित हुआ था. उस समय तक भाजपा का गठन नहीं हुआ था. जानकार लोगों के अनुसार, समरेश ने चुनाव प्रचार के दौरान अपने चुनाव चिह्न कमल फूल को मां लक्ष्मी का प्रतीक बताकर वोट मांगा था. छात्र संघर्ष समिति ने उस वक्त श्री सिंह के पक्ष में प्रचार किया था. पहली बार में ही जीत दर्ज कर ली और बोकारो में कमल खिल गया. इस चुनाव के बाद वह भाजपा में आ गए और 1980 में मुंबई में हुए भाजपा के प्रथम अधिवेशन में भाग लिया.
बताया जाता है कि अधिवेशन में जब पार्टी का चुनाव चिह्न तय करने की चर्चा शुरू हुई तो समरेश सिंह ने कमल फूल को पार्टी का प्रतीक चिह्न अथवा चुनाव चिह्न बनाने का सुझाव अटल बिहारी वाजपेयी को दिया था. ग्वालियर घराने की राजमाता विजया राजे सिंधिया ने इस पर हामी भरी थी. भाजपा की कोर कमेटी ने इस पर विचार कर कमल को अपने चुनाव चिह्न के रूप में अपना लिया. हालांकि, कुछ लोगों का ऐसा भी मानना है कि भाजपा ने कमल का निशान 1857 की क्रांति में सूचना के आदान-प्रदान वाले माध्यम व राजनीति में सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के लिए चयनित किया था, लेकिन समरेश का हमेशा यह दावा रहा है कि उनके सुझाव पर ही भाजपा ने कमल को अपनाया था. अनेक भाजपाई भी समरेश के दावे को हमेशा स्वीकारते रहे हैं.
वैसे दिलचस्प बात भी रही है कि जिस चुनाव चिह्न को भाजपा ने अपनाया, उसी चिह्न पर जब 1980 के चुनाव में समरेश सिंह भाजपा के टिकट पर बोकारो से दोबारा चुनाव लड़े तो इन्हें हार का सामना करना पड़ा. इस चुनाव में अकलूराम महतो ने जीत दर्ज की थी. हालांकि बाद के चुनाव (1985 व 1990) में भाजपा के टिकट पर ही समरेश सिंह ने दो बार चुनाव जीता. पर, इस चुनाव के बाद कुछ ऐसी राजनीतिक परिस्थितियां बनी कि जिद्दी स्वभाव के समरेश ने हमेशा के लिए भाजपा को अलविदा कह दिया. राजनीतिज्ञों का ऐसा मानना है कि समरेश के राजनीतिक जीवन की यह सबसे बड़ी भूल थी. इनके समर्थक और विरोधी दोनों यह मानते रहे हैं कि समरेश ने अगर भाजपा नहीं छोड़ी होती तो उनका राजनीतिक दबदबा राष्ट्रीय स्तर पर बन गया होता और पार्टी में भी वह अग्रिम पंक्ति के नेताओं में जाने जाते हैं.
छऊ नृत्य में थी दिलचस्पी
समरेश सिंह ने छात्र जीवन में ही चास के हरिमंदिर को अपना ठिकाना बना लिया था. यहां उन्होंने छऊ नृत्य में अपनी दिलचस्पी दिखायी और पूरे प्रदेश में इसका जलवा बिखेर ख्याति प्राप्त की. वर्ष 1976 में जयप्रकाश नारायण की संपूर्ण क्रांति के आंदोलन में कूद पड़े, जिसमें उन्हें भागलपुर जेल भी जाना पड़ा. यही वक्त था जब चंद लोगों के नेता रहे समरेश को ख्याति मिली और संसदीय राजनीति की शुरुआत हुई.
रिपोर्ट : सुनील तिवारी/दीपक सवाल