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तुरी जाति के पारंपरिक व्यवसाय पर मंडरा रहा खतरा, बांस के बने सामानों की बिक्री में आयी गिरावट

Jharkhand news, Chatra news : चतरा जिला अंतर्गत परसौनी पंचायत के सिरमतपुर गांव निवासी तुरी जाति के पारंपरिक व्यवसाय पर खतरा मंडराने लगा है. हाथ से बांस का सामान (टोकरी, सूप, दाउरा, मौनी, पंखा आदि) बनाते हैं, लेकिन बाजार में प्लास्टिक के सामानों की बिक्री होने के कारण इनका व्यवसाय प्रभावित हो रहा है. इससे इनके द्वारा निर्मित सामानों की बिक्री में भारी गिरावट आयी है. बांस से निर्मित सामान बनाने वाले कारीगरों के समक्ष आर्थिक संकट भी उत्पन्न होने लगी है. तुरी समाज के लोगों मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन से इस ओर ध्यान देने की अपील की है, ताकि इनका पारंपरिक कार्य जीवित रह सके.

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Jharkhand news, Chatra news : इटखोरी (विजय शर्मा) : चतरा जिला अंतर्गत परसौनी पंचायत के सिरमतपुर गांव निवासी तुरी जाति के पारंपरिक व्यवसाय पर खतरा मंडराने लगा है. हाथ से बांस का सामान (टोकरी, सूप, दाउरा, मौनी, पंखा आदि) बनाते हैं, लेकिन बाजार में प्लास्टिक के सामानों की बिक्री होने के कारण इनका व्यवसाय प्रभावित हो रहा है. इससे इनके द्वारा निर्मित सामानों की बिक्री में भारी गिरावट आयी है. बांस से निर्मित सामान बनाने वाले कारीगरों के समक्ष आर्थिक संकट भी उत्पन्न होने लगी है. तुरी समाज के लोगों मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन से इस ओर ध्यान देने की अपील की है, ताकि इनका पारंपरिक कार्य जीवित रह सके.

इस संबंध में प्रेम तुरी कहते हैं कि बांस का सामान बनाने के लिए जिस हिसाब से मेहनत करते हैं, उस हिसाब से आमदनी नहीं होती है. इटखोरी के जंगल में बांस भी उपलब्ध नहीं है. कोडरमा और गिरिडीह से बांस खरीद कर लाने को मजबूर होते हैं. एक बांस की कीमत करीब 300 रुपये होती है. प्लास्टिक निर्मित सामानों की बाजार में अधिक बिक्री होने से बांस से निर्मित सामानों की बिक्री कम हो गयी है.

सुरेंद्र तुरी ने कहा कि लोग अब प्लास्टिक से बने सामानों का अधिक उपयोग करने लगे हैं. इसलिए बांस से बने सामानों की मांग कम हो गयी है. उन्होंने कहा कि अब तो सिर्फ समय काटा जा रहा है. खरीदार भी कम हो गये हैं. अगर बाजार का यही हाल रहा, तो बांस का सामान बनाना छोड़ने को विवश होंगे.

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लच्छु तुरी ने कहा कि 4 दिन बाद गिरिडीह से बांस लेकर आये हैं. इटखोरी के जंगल में बांस नहीं है. बांस से निर्मित सामानों के खरीदारों की कमी हो गयी है. लोग अब प्लास्टिक के सामानों का इस्तेमाल करने लगे हैं. अब हमलोगों के पारंपरिक धंधे पर भी खतरा मंडराने लगा है. सरकार का इस ओर कोई ध्यान नहीं है. इसे बचाये रखने के लिए बांस एवं बांस से निर्मित सामानों के लिए बाजार की व्यवस्था करें. सरकार संसाधन उपलब्ध नहीं करायेगी, तो रोजगार करने मुंबई, सूरत जैसे शहरों में जाने को बाध्य होंगे.

सीता देवी ने कहा कि बांस मिलता ही नहीं है. बहुत मुश्किल से गिरिडीह एवं कोडरमा से बांस लाते हैं तब कुछ सामान बनाते हैं. बाजार में सामान बिकता भी नहीं है. हमलोगों को चिंता सता रहा है कि आगे क्या करेंगे. बसंती मसोमात ने कहा कि अब केवल समय गुजारने के लिए कुछ सामान बनाते हैं. सरकार भी तुरी जाति पर ध्यान नहीं देती है. किसी प्रकार का साधन उपलब्ध नहीं है. जंगल में बांस भी नहीं है. जब बांस मिलेगा नहीं, तो सामान कैसे बनेगा. बसंती देवी ने कहा कि बाजार में बांस के सामानों की मांग कम हो गयी है. खरीदार भी नहीं हैं. पूंजी निकालना भी मुश्किल हो जाता है.

Posted By : Samir Ranjan.

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