देवघर : देवघर में बुलबुल की लड़ाई की पुरानी परंपरा

ज्योति, देवघर किसी भी खेल में हार-जीत तो लगी ही रहती है, पर जब किसी खेल का फैसला किसी की प्रतिष्ठा से जुड़ जाता है तो वह और भी रोमांचक हो जाता है. हालांकि, इस हार-जीत में वैमनस्य कम, उत्साह चरम पर होता है. कुछ ऐसा ही देवघर में लगभग 200 साल पहले बुलबुल लड़ाने […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | February 6, 2019 7:53 AM

ज्योति, देवघर

किसी भी खेल में हार-जीत तो लगी ही रहती है, पर जब किसी खेल का फैसला किसी की प्रतिष्ठा से जुड़ जाता है तो वह और भी रोमांचक हो जाता है. हालांकि, इस हार-जीत में वैमनस्य कम, उत्साह चरम पर होता है. कुछ ऐसा ही देवघर में लगभग 200 साल पहले बुलबुल लड़ाने के खेल में देखा जाता था. यह महज एक खेल नहीं बाबा नगरी की प्राचीन परंपरा थी, जो अब खत्म हो रही है.

लोहाबाड़ी से शुरू हुई परंपरा, जीतने पर निकलता था विजय जुलूस : देवघर में यह परंपरा लोहाबाड़ी से शुरू हुई थी. उस समय लोहाबाड़ी में 100 से अधिक लोग बुलबुल लड़ाने पहुंचते थे. भीड़ अधिक होने पर इसे अलग-अलग टीम में बांट दिया गया था. इस तरह आठ टीम बन गयी. हर दल में 50 से अधिक सदस्य हुआ करते थे.

सभी टीम अपने-अपने जगहों में बुलबुल लड़ाते थे. इसमें विजयी बुलबुल का अन्य दलों के साथ मुकाबला होता था. फाइनल में जीतने वाली टीम भव्य विजयी जुलूस निकालती थी. इसमें ढोल बाजे के साथ अबीर गुलाल लगा कर नाचते-झूमते नगर भ्रमण करते थे. उस दौरान सरदार पंडा भवप्रीतानंद ओझा के जुड़ने से इसकी भव्यता बढ़ गयी. तीर्थ पुरोहित समाज के अधिक से अधिक लोग जुड़ने लगे. फाइनल मुकाबला मंदिर के भीतरखंड में होने लगा. इसे देखने के लिए लोगों को एक घंटा पहले लोग पहुंचते थे.

कानपुर से मंगाते थे बुलबुल : शुरुआती दौर में सरदार पंडा कानपुर से बुलबुल मंगाते थे. उनके लिए कमला पांडेय को कानपुर भेजते थे. बाद में सरदार पंडा ने अपनी नीति में बदलाव किया. जीतने वाले बुलबुल ही अपने पास रख लेते थे. विजेता बुलबुल के मालिक को पारितोषिक के रूप में अशर्फी व लड्डू देते थे.

अब चार टीम के बीच ही मुकाबला

समय के साथ-साथ अब आठ से यह टीम घटकर चार तक पहुंच गयी. इसमें भी किसी भी टीम में चार से अधिक सदस्य नहीं हैं. इस बार 15 जनवरी मकर संक्रांति के दिन फाइनल मुकाबला हुआ. इसमें शिवानंद झा का बुलबुल लगातार तीसरे वर्ष विजेता बना. लेकिन विजयी जुलूस नहीं निकली. वर्तमान समय में शिवानंद तिवारी, अशोक कुमार, विनोद कुमार, मनीष ठाकुर, जांका पंडा, आनंद दत्त द्वारी, विजय पांडेय, सुरज मिश्र आदि परंपरा को जीवित रखे हुए हैं.

बुलबुल का रखते थे विशेष ख्याल : बुलबुल के शौकीन लोग इस पक्षी का विशेष ख्याल रखते हैं. सत्तु, गुड़ व फलों के रस पिलाते हैं. खिलाने का समय निर्धारित रखते हैं. घड़ी देख कर बुलबुल को खाना खिलाते हैं. चकस पर बैठा कर अपने साथ बाजार घुमाते हैं. इन्हें पिंजरा में रखा जाता है.

दशहरा के बाद शुरू होती है बुलबुल की लड़ाई

बुलबुल लड़ाने का समय तय है. यह हर साल दशहरा पर्व मनाने के बाद शुरू होता है. मकर संक्रांति तक लड़ाया जाता है. इस समय जाड़ा महीना होने से ठंड से बचाने के लिए धूप उगने के बाद सुबह लगभग नौ बजे लड़ाई शुरू होती है. यह सप्ताह में मंगलवार व शुक्रवार को दो दिन ही लड़ाई जाती थी. विजयी बुलबुल को अपने पास रख लिया जाता है. लेकिन हारनेवाले बुलबुल को पुन: उसी जगह पर छोड़ा जाता है. जहां से पकड़ कर लाया जाता है.

दूर-दराज से लाये जाते हैं बुलबुल : बुलबुल के शौकीन विजेता बुलबुल की खोज में दूर-दूर तक चले जाते हैं. इसके लिए घने जंगलों में कुछ दिन तक रह जाते हैं. जंगलों में बुलबुल की आपसी लड़ाई देखते हैं. इसमें जीतने वाले बुलबुल का पीछा किया जाता है. उसके घोसले की खोज की जाती है. देवघर के लोग त्रिकुटी पहाड़, बटिया जंगल, गिरिडीह जंगल, हजारीबाग जंगल, रांची के पहाड़ोंं तक पकड़ने चले जाते हैं.

तीन नस्ल के बुलबुल : बुलबुल के टॉकी, डौमा व बेसड़ा आदि मुख्य तीन नस्ल माने जाते हैं. इसमें तीनों का आकार अलग-अलग होता है. टॉकी, डौमा प्रजाति का बुलबुल सबसे बड़ा आकार का होता है. यह मार करता है, लेकिन मार सह नहीं पाता है. इसलिए अक्सर लड़ाई में हार जाता है. बेसड़ा प्रजाति का बुलबुल मध्यम आकार का होता है. यह लड़ने में अधिक तेज-तर्रार नहीं होता है. टॉकी प्रजाति का बुलबुल आकार में दोनों प्रजाति से छोटा होता है. यह मार खाने के बाद भी लड़ाई में डटा रहता है. इसलिए बुलबुल के अधिकतर शौकिन टॉकी प्रजाति के ही बुलबुल रखते हैं.

जय नारायण खवाड़े नहीं जाते थे मंदिर : जय नारायण खवाड़े बुलबुल के बड़े शौकिन थे. अपने बुलबुल सरदार पंडा को नहीं देने के कारण मंदिर लड़ाने नहीं जाते थे.

उनका बुलबुल लगातार 10 वर्षों तक विजेता रहा. वह बालगुद्दर समाज के साथ थे.

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