इस दीर्घकालीन प्रशिक्षण तथा कठोर अनुशासन के परिणामस्वरूप ड्रू इडों की शक्ति में काफी वृद्धि हुई थी. अनेक वर्षों तक भिक्षु होकर नि:स्वार्थ सेवा के बाद ही उनके ओहदों में बढ़ोतरी की जाती थी. ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए वे प्रकृति विज्ञान का अध्ययन करते थे तथा उसके रहस्यों को अपने तक ही सीमित रखते थे. आश्रमों में अनेक लोग रहते थे तथा (जैसे भारतीय आश्रमों में संन्यासी दीर्घकाल तक नि:स्वार्थ सेवा करते हैं) सेवा करते थे. हालांकि इस अवस्था में ब्रह्मचर्य अनिवार्य नहीं था, उनमें से कुछ विवाह भी करते थे. अनेक ड्रू इड जीवन से अवकाश लेकर गुफाओं तथा कुटिया में विरक्त की तरह रहते थे. जंगल में रहते हुए वे ध्यान की निर्विघ्न साधना में व्यस्त रहते थे. वे गुफा अथवा कुटिया से केवल तभी बाहर आकर लोगों से मिलते थे, जब उन्हें कोई सलाह देनी होती अथवा धार्मिक कर्मकांड करना होता था. साधना की कठिन परीक्षा से सफलतापूर्वक गुजरने पर ही उन्हें वरिष्ठ संन्यासी का दायित्व सौंपा जाता था. इस तरह से मजबूत साधक ही इन परीक्षाओं में सफल होते थे. अतएव निश्चय ही उनकी संख्या अत्यल्प रहती थी.
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प्रवचन::::नि:स्वार्थ सेवा के बाद ही सम्मान बढ़ता है
इस दीर्घकालीन प्रशिक्षण तथा कठोर अनुशासन के परिणामस्वरूप ड्रू इडों की शक्ति में काफी वृद्धि हुई थी. अनेक वर्षों तक भिक्षु होकर नि:स्वार्थ सेवा के बाद ही उनके ओहदों में बढ़ोतरी की जाती थी. ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए वे प्रकृति विज्ञान का अध्ययन करते थे तथा उसके रहस्यों को अपने तक ही सीमित रखते […]
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