छह माह देवघर में रहे, मोड़ दी जयंती नदी की धारा

देवघर: भारत रत्न से सम्मानित विख्यात अभियंता डॉ विश्वेश्वरैया की जीवनी झारखंड से भी जुड़ी हुई है. डॉ विश्वेश्वरैया का जुड़ाव देवघर से भी रहा है. अपने प्रयोग से इन्होंने जयंती नदी की धारा मोड़ देवघर के करौं अंचल स्थित चेतनारी गांव की लगभग दो हजार एकड़ भूमि जो कभी मरुस्थली हुआ करती थी उसमें […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | September 15, 2013 9:20 AM

देवघर: भारत रत्न से सम्मानित विख्यात अभियंता डॉ विश्वेश्वरैया की जीवनी झारखंड से भी जुड़ी हुई है. डॉ विश्वेश्वरैया का जुड़ाव देवघर से भी रहा है. अपने प्रयोग से इन्होंने जयंती नदी की धारा मोड़ देवघर के करौं अंचल स्थित चेतनारी गांव की लगभग दो हजार एकड़ भूमि जो कभी मरुस्थली हुआ करती थी उसमें हरियाली लाने में उल्लेखनीय योगदान दिया.

80 वर्ष पूर्व डॉ विश्वेश्वरैया पाथरौल स्थित काली मंदिर आये थे. यहां वह पड़ोसी गांव चेतनारी के किसानों की समस्या से अवगत हुए. चेतनारी में जयंती नदी के पानी से अधिकांश जमीन पर बालू भरा रहता था. जयंती नदी गांव के बीच से घूमते हुए निकली थी. जब भी बाढ़ आता, तो जमीन पर बालू छोड़ जाता. किसानों की सारी जमीन बेकार हो गयी थी. डॉ विश्वेश्वरैया एक संकल्प के साथ पाथरौल निवासी मथुरा प्रसाद साह के घर में छह माह रुके व जयंती नदी की धार को सीधा करने में जुट गये. चेतनारी समेत दर्जन भर गांव से लगभग 600 मजदूरों ने प्रत्येक दिन बंजर जमीन की मिट्टी को काटना शुरू किया व बंजर जमीन को नदी के आकार में लाया.

लगातार छह माह तक डॉ विश्वेश्वरैया दिन भर जयंती नदी के किनारे में मजदूरों को मार्गदर्शन देकर दिन काटते थे. उस दौरान वह अपना भोजन भी मजदूरों के साथ किया करते थे. सांप की तरह घूमने वाली जयंती नदी को सीधा करने में पांच वर्ष लग गये व नदी सीधी हो गयी. इसके बाद बालू वाली जमीन पर पहले मूंगफली वगन्‍नेकी खेती शुरू हुई. धीरे-धीरे जमीन की उर्वरक शक्ति बढ़ती गयी व आज सालों भी चेतनारी में खेती होती है.

डॉ विश्वेश्वरैया खेती के पक्षधर थे : गुप्ता
डा विश्वेश्वरेया जहां ठहरे थे, वह घर आज भी पाथरौल में है. मथुरा प्रसाद साह के पोते रामानंद गुप्ता कहते हैं कि चेतनारी की खेती की पहचान संताल परगना में है. उन्होंने कहा कि दादाजी बताया करते थे कि डॉ विश्वेश्वरेया खेती के पक्षधर थे. उन्होंने पटना में उनसे पाथरौल काली मंदिर आने का आग्रह किया था, लेकिन संताल परगना में कमजोर खेती देख उन्होंने पूरे मौजा को अपना प्रयोग से समृद्ध बना दिया.

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