तीन साल में खंडहर बन गया मोहनपुर का कुशमाहा गांव

देवघर : मोहनपुर प्रखंड की बिहार सीमा से सटे कुशमाहा गांव में कभी कोई बड़ा भूकंप नहीं आया, इस गांव को न तो किसी भीषण बाढ़ का सामना करना पड़ा, न ही कोई और प्राकृतिक कहर टूटा. दरअसल, इस गांव पर भय और भूख का ऐसा कहर बरपा कि आज यह डरावना खंडहर में तब्दील […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | February 13, 2017 5:45 AM

देवघर : मोहनपुर प्रखंड की बिहार सीमा से सटे कुशमाहा गांव में कभी कोई बड़ा भूकंप नहीं आया, इस गांव को न तो किसी भीषण बाढ़ का सामना करना पड़ा, न ही कोई और प्राकृतिक कहर टूटा. दरअसल, इस गांव पर भय और भूख का ऐसा कहर बरपा कि आज यह डरावना खंडहर में तब्दील हो गया है. महज तीन साल पहले इस गांव में 700 लोगों का बसेरा होता था,

आज गांव के मंदिर में दीये दिखाने के लिए भी कोई नहीं बचा है. सब के सब नक्सलियों, अपराधियों, डकैतों के दहशत और रोजी-रोजी के संकट की दोहरी मार से लाचार होकर गांव छोड़ गये.

20 साल में आठ बड़ी डकैती, दर्जनों चोरी की वारदात: 20 वर्षों के दौरान इस छोटे से गांव में आठ बार डकैती व दर्जनों से अधिक चोरी की वारदात हुई. प्रशासन लापरवाह बनी रही, डरे लोग हतोत्साह होते-होते इतने लाचार हो गये
तीन साल में खंडहर…
कि गांव छोड़ने के अलावा उनके पास कोई विकल्प नहीं बचा. कोई तीन साल पहले तक कुशमाहा के मोेदी टोला में लगभग 50 घरों में 70 परिवार रहते थे. गांव में धान की बड़ी मंडी हुआ करती थी. अगल-बगल के लोग यहां धान की खरीद-बिक्री करते थे. अब मोदी टोला निर्जन है. दीवारें आपस में बात करती हैं. पक्के मकान भी जर्जर हो गये हैं. ग्रामीण रोजगार की तलाश में कोलकाता व मुंबई चले गये. कई परिवार देवघर शहर में आकर बस गये. अब गांव में जो घर है, उसकी दीवारों की ईंट चोर चोरी कर ले जा रहे हैं.
कोई गया देवघर तो कोई चले गये महानगर
कुशमाहा गांव में जब आबादी थी तब अंधेरा होने से पहले भय की वजह से लोग अपने-अपने घरों में घुस जाते थे. बेराेजगारी की वजह से गांव के 50 फीसदी पुरुष कोलकाता व मुंबई में काम पहले से ही करते रहे हैं, इनके परिवार में महिला व बच्चे ही केवल गांव में रहते थे. लेकिन असुरक्षा उनके जेहन हमेशा रहती थी. असुरक्षा को देखते हुए कोलकाता व मुंबई में काम करने वाले धीरे-धीरे देवघर में शहर में अपने परिवार व बच्चों को शिफ्ट कर दिया. गांव के करीब 30 परिवार तो केवल जीवन-यापन करने के लिए देवघर में रहते हैं, उनके घर के पुरुष बाहर काम करते हैं. कोलकाता व मुंबई में अधिकांश पुरुष मजदूरी, ऑटो चालक, फुटपाथ में दुकान व घरों व दुकान में स्टॉफ का काम करते हैं.
असुविधाएं भी बनी पलायन की वजह
70 में 30 परिवार जीवन-यापन करने देवघर शहर में रहते हैं, तो 40 परिवार के पुरुष देवघर शहर में ही अलग-अलग रोजगार कर गुजर-बसर कर रहे हैं. 40 परिवार ने असुविधा की वजह से गांव छोड़ दिया. इस गांव में 2008 में विद्युत तार चोरी होने के बाद कभी बिजली नहीं आयी. गांव को जोड़ने के लिए पक्की सड़क नहीं है. लड़कियों की उच्च शिक्षा के लिए बेहतर स्कूल नहीं है. दो चापानल के सहारे गांव की आबादी थी.
सब्जी उत्पादन में थी पहचान
गांव खाली होने के बाद लगभग 100 एकड़ जमीन परती रह गयी है, कुछ खेत बचे हैं तो दूसरे गांव व टोले के लोगों को अधबटैया में दे दिया है. कभी सब्जी उत्पादन में कुशमाहा गांव का नाम था. सिंचाई के कम संसाधन में भी किसान बाड़ी में सब्जियां की खेती कर शहर के सब्जी मार्केट में ताजी सब्जियां बेचते थे. लेकिन सिंचाई की सुविधा सरकार द्वारा उपलब्ध नहीं होने पर धीरे-धीरे सब्जी की खेती भी प्रभावित होने लगी. अब तो यह जमीन बंजर होती जा रही है.
अब नहीं जलते मंदिरों में दीये
कुशमाहा गांव में जब लोग रहते थे अपने खर्चों पर गांव में भगवान शिव व पार्वती समेत कुल पांच मंदिराें का निर्माण कराया था. लोग श्रद्धापूर्वक नियमित रूप से सुबह-शाम मंदिरों में पूजा अर्चना करते थे. अब तीन वर्षों से इन मंदिरों में भी नियमित रुप से पूजा नहीं होती है. आखिर शहर 20 किलोमीटर दूर आकर कौन नियमित रुप से पूजा करेगा.
टेंट लगाकर किया छठ पूजा
गांव छोड़ने के बाद जिस प्रकार तेजी से घरों की किमती लकड़ी के दरवाजे- चौखट व ईंट तक चोरी हो गयी. उसमें भला घर कैसे सुरक्षित रह सकता था. अब गांव के हरे-भरे पेड़ की भी चोरी हो रही है. कोई ऐसा घर नहीं बचा है, जहां लोग रात भर के लिए रुक सके. इस वर्ष करीब 30 परिवार ने टेंट लगाकर छठ पूजा की व पूजा खत्म होते ही सभी वापस लौट गये.
वोट देने आते हैं गांव
कुशमाहा गांव के लोगों ने अज भले ही गांव छोड़ दिया हो, लेकिन पंचायत चुनाव से लेकर लोकसभा चुनाव तक गांव वोट देने जरूर आते हैं. चुनाव के समय अपना मताधिकार का प्रयोग करने महिलाएं तक गांव आती है. वोट देकर फिर वापस लौट जाते हैं.
भय ने मचायी भूकंप-सी त्रासदी
700 लोग कर गये पलायन
कभी कुशमाहा गांव में होती थी धान की मंडी
70 परिवार में 600 की संख्या में रहते थे लोग
तीन वर्ष के दौरान धीरे-धीरे कर गये पलायन
प्रशासन की अनदेखी से भी परेशान से ग्रामीण

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