हम भूल गये ‘साबुनवाला फलाहारी’ का योगदान

सिर पर अब भी गहरा जख्म था. पट्टी बंधी थी. वे देवघर के अपने पैतृक मकान के बागान में बैठ कर रात के 11 बजे भी ‘कपटिया’ साबुन बना रहे थे. पिता सुरेंद्र प्रसाद फलाहारी रेडियो के सामने बैठे थे

By Prabhat Khabar News Desk | June 4, 2022 11:14 AM

सिर पर अब भी गहरा जख्म था. पट्टी बंधी थी. वे देवघर के अपने पैतृक मकान के बागान में बैठ कर रात के 11 बजे भी ‘कपटिया’ साबुन बना रहे थे. पिता सुरेंद्र प्रसाद फलाहारी रेडियो के सामने बैठे थे. ऑल इंडिया रेडियो का सिग्नेचर ट्यून बज रहा था. भारत की आजादी का ऐलान होनेवाला था.

रात साढ़े 11 बजे जवाहरलाल रेडियो पर भारत की आजादी का अपनी स्पीच पढ़नेवाले थे. ‘फलाहारी मजलिस’ में उनके परिवार सदस्यों के अलावा राधिका खवाड़े (दुल्ली), विश्वनाथ मिश्र (भगत), इंद्र नारायण नरौने (झा फरियादी), शुकदेव दास जैसे एक दर्जन से अधिक लोग शामिल थे.

आजादी से पहले भी यह साबुन ‘भारत’ नाम से बनता था. ‘भारत’ नाम के कारण ही यह देवघर के पंडा (मैथिल और चक्रवर्ती), गुमास्ता, बनिया और बंगाली समाज के लिए यह साबुन एक आभूषण की तरह पवित्र था. इसे बनानेवाले थे देवी फलाहारी यानी देवी प्रसाद फलाहारी. बंगाली समाज इन्हें ‘कास्टिक छेला’ कहता था और पंडा समाज ‘साबुन वाला फलाहारी.’ आज भी यह परिवार देवघर में साबुनवाला फलाहारी के नाम से जाना जाता है.

साबुन तो देवी फलाहारी अपने विद्यार्थी जीवन से ही बनाते, बेचते थे. इससे जो भी मुनाफा होता, उसे वे साबुन निर्माण में ही लगा देते. मूलधन से बना साबुन अलग रखते और मुनाफे से निर्मित साबुन के लिए एक संदूकची थी, जिसे वे विप्लवियों (विद्रोहियों) और जरूरतमंद निर्धनों के लिए पिताजी की नजर से बचा कर रखते थे. यानी यह साबुन महज साबुन नहीं था, देशभक्ति की भावना को फैलाने का जरिया और ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ आवाज बुलंद करने वालों के समर्थन का संदेश.

यह साबुन वे कटोरेनुमा मिट्टी के बर्तनों में ढालते थे. फुच्चो पंडित इन बर्तनों को बनाते थे. एक दिन फुच्चो ने उन्हें कुछ साबुन ये छिपा कर एक पुरानी संदूकची में भरते देख लिया. खबर पिता जी को भी हो गयी. उन्हें गुस्से में कहा- ‘कपटी, इसे तुम छुपा कर किसे देते हो?’ देवी के आंखों में आंसू थे. पिताजी ने सारा साबुन संदूक से निकाल कर फेक दिया.

अब देवी ने इस साबुन को ही ‘कपटिया’ नाम दे दिया. अब विप्लवी मित्रों के लिए यह साबुन ‘कपटिया’ नाम से था और आम लोगों के लिए ‘भारत’ नाम से. जब यह बात आम लोगों को मालूम हुई, तो मिट्टी के उस बर्तन को ही लोग कपटी बोलने लगे, जिसमें उस साबुन को ढाला जाता था. आज भी देवघर में भांड से थोड़ा ज्यादा छितरा हुआ मिट्टी का प्याला ‘कपटी’ कहा जाता है.

कास्टिक सोडा के साथ और अवयवों को मिलाकर साबुन बनाने का फार्मूला उन्होंने अपने स्कूल में सीखा था. इसका उपयोग कर आम लोगों में देशप्रेम की भावना जगाने के लिए यह साबुन वे बना रहे थे. इसी निर्माण के दरमियान वे बंगाली विप्लवियों के संपर्क में आये और आंदोलन में और सक्रिय हो गये. फलतः गिरफ्तार भी हुए और एक महीने से अधिक जेल भी काटा. फिर जब वे छूटे, तो गांधी जी के ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ में कूद पड़े और सचिवालय पर झंडा फहराने पटना पहुंचे. उन्हें बाहर ही रोक दिया गया, जहां भयंकर लाठीचार्ज और गोलीबारी भी की गयी. इसी लाठी चार्ज में वे घायल हो गये थे.

बहरहाल, देश की आजादी की लड़ाई में देवी प्रसाद के योगदान का तरीका न केवल नायाब था, बल्कि बड़े नेताओं के भाषण को सुन कर वे उत्साहित होते थे और उन नेताओं के संदेशों को अपने संपर्क में बने लोगों तक खूब उत्साह से पहुंचाते भी थे. वर्ष 1978 में उन्होंने अंतिम सांस ली. अलबत्ता, इतिहासकारों ने इस महान सपूत की खूब अनदेखी की और उनके योगदान को इतिहास की किताबों में समुचित जगह नहीं मिली.

हां, देवघर नगरपालिका ने इनके पुराने घर के बगल वाले रास्ते (हरिहर बाड़ी जाने वाले मार्ग) को ‘देवी प्रसाद फलाहारी मार्ग’ का नाम जरूर दिया है. वे गरम दल की विचारधारा को तवज्जो देते थे और देवघर के नरम दल के नेताओं की टोली से सदा अलग रहे. लिहाजा, उन्हें और उनकी टोली को सरकारी कोप का भी शिकार होना पड़ा.

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