Baba Baidyanath Jyotirlinga Deoghar: शिव शब्द का अर्थ ब्रह्म और लिंग शब्द का अर्थ चिह्न या प्रतीक है, अर्थात माया विशिष्ट परमेश्वर का ही लिंग के रूप में पूजन होता है. शिवपुराण विशेश्वर संहिता में लिंग शब्द का अर्थ इस प्रकार बतलाया गया है :
लीनार्थगमक चिह्न लिंगमित्यभिधीयते ।
भं वृद्धिं गच्छतीत्यर्पाद भगः
प्रकृतिरुच्यते ॥
मुख्यो भगस्तु प्रकृतिर्भगवान
शिव उच्यते ।।
उलीन अर्थात् अव्यक्तावस्थापन्न वस्तु के गमक – बतलाने वाले चिह्न को लिंग कहते हैं और अभिवृद्धि की तथा प्राप्त होनेवाली वस्तु को भग कहते हैं. उस भग के अधिष्ठाता को भगवान शिव कहते हैं. शिवजी की स्थूल मूर्ति को शिवलिंग कहते हैं. ब्रह्माण्ड इनका लिंग अर्थात ज्ञापक है. उस लिंग का ब्रह्मा और विष्णु भी आदि-अन्त न पा सके थे. यह कथा शिवपुराण में इसीलिए कहीं गयीं है कि शिव वस्तुतः सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म ही है , यही तात्पर्य बताना उसका अभिप्राय था. यजुर्वेद शतरुद्रीय अध्याय की इस विषय में पर्याप्त प्रसिद्धि है.
शिवोपासना अत्यन्त ही सहज और सरल है. उपास्य वह तत्व है जिसकी उपासना से अभ्युदय और निःश्रेयस सिद्धि सम्भव है. उपासना वह विद्या है जिसके आलंबन से उपास्यरूपता सम्भव है. उपासक वह साधक है जो उपास्य को आश्रय और विषय बनाकर उपास्यसाधर्म्य के लिए यत्नशील है. शिव के सगुण ( सकल ) और निर्गुण ( निष्कल ) उभयरूप की उपासना प्रशस्त है. वेद विग्रह और लिंग का आलम्बन लेकर क्रमश : सकल और निष्कल उभयविधा शिवोपासना सम्भव है. सार्ष्टि , सालोक्य , सारूप्य और सामीप्य मोक्ष की सिद्धि सकलोपासना से सुगम सायुज्य मोक्ष की सिद्धि सकल – निष्कल उभय विधा उपासना से सम्भव है. स्वयं को कर्त्ता , द्रष्टा , ध्याता , प्रमातादि माननेवाले मनीषी अर्थात् त्रिपुटी के केवल शिरोभाग में आत्मबुद्धि सम्पन्न साधक लिंगोपासना कर कैवल्यपद सुगमतापूर्वक प्राप्त कर सकते हैं. नाम , रूप , लीला और धर्मावलम्बन से साकारोपासना सम्भव है. केवल स्वरूपालम्बन से निराकारोपासना सम्भव है.
विषय शक्ति की निवृत्ति और अन्तःसुख की अभिव्यक्ति साकार तथा सगुणोपासना की सिद्धि का द्योतक है. शिवात्मक विज्ञान से अविद्या, काम और कर्म की निवृत्ति तथा परमानन्द रूप से अवस्थिति निर्गुणोपासना की सिद्धि का द्योतक है. निर्गुणोपासना से निर्विकल्प वेदादि शास्त्रों में भगवान शिव की पूजा – अर्चना और उपासना विभिन्न रूपों में वर्णित है. भगवान शिव सगुण साकार मूर्त्त रूप में तथा निर्गुण – निराकार – अमूर्त रूप में भी पूज्य हैं. सगुण – साकार रूप में सदाशिव का पूजन विभिन्न स्वरूपों में भक्त अपनी भावना के अनुसार करता है. परम शिव , साम्ब – सदाशिव , उमा महरेवर , अर्द्धनारीश्वर , महामृत्युंजय , पंचवक्त्र , पशुपति , कृतिवास दक्षिणामूर्त्ति , योगीश्वर तथा महेश्वर आदि नाम और रूपों में भगवान की आराधना की जाती है. इसके अतिरिक्त ईशान , तत्पुरुष , अघोर , वामदेव तथा सद्योजात ये भगवान शिव की पांच मूर्त्तियां हैं , जिन्हें पंचमूर्ति कहा जाता है. पंचवक्त्र पूजन में इन्हीं पांच नामों से पंचानन महादेव का पूजन होता है. भगवान शिव की अष्टमूर्ति के पूजन का विधान भी मिलता है. शिव , भव , रुद्र , उग्र , भीम , पशुपति , ईशान , वायु , आकाश , क्षेत्र , सूर्य और चन्द्र में अधिष्ठित मूर्त्तियां हैं. रुद्र भगवान सदाशिव के परमब्रह्मतत्व को प्रकट करता है. ब्रह्मा , विष्णु , महेश्वर नामक आत्मत्रय का आलम्बन होने पर भी भगवान रुद्र संहारकर्त्ता माहेश्वर – स्वरूप को ही अपना प्रधान अधिष्ठान मानते हैं, इसीलिए कार्यकाल में उनकी मूर्ति घोरा मानी गयी है. समाधि की सुगमता पूर्वक सिद्धि , समाधिसिद्धि से प्रतिबन्ध निवृत्ति , प्रतिबन्ध निवृत्ति से शिवात्म विचार के उपयुक्त बल की अभिव्यक्ति , विचारोपयुक्त बल की अभिव्यक्ति से शिवात्म विज्ञान की अभिव्यक्ति , शिवात्म विज्ञान से अनात्मक संसर्ग विनिर्मुक्त शिवात्मरूप से व्यवस्थितरूपा मुक्ति सम्भव है. भक्तिभावपूर्वक शिव नामोच्चारण से शीघ्र ही समस्त पापों की निवृत्ति और शिव – पद की प्राप्ति सुनिश्चित है :
नाम संकीर्तनादेव शिवस्याशेष पातकैः । यतः प्रमुच्येत क्षिप्रं मन्त्रों यं
द्वयक्षरः परः ॥
यः शिवं शिवमित्येवं द्वयक्षरे मन्त्रभ्यसेत् ।
एकाक्षरं वा सततं स याति परमं पद्म ।।
( शिवोपनिषद् 1/20/21 ) अर्थात् प्रत्येक व्यक्ति का अन्तःकरण शिवायतन है. हृदय अन्तःकरण का अभिव्यंजक है. हृत् पदम् – वेदिका ऊँकार लिंग है. पुरुष लिंग का स्थापक है. सत्य सम्मार्जन है. अहिंसा गोमय है. संतोष पुष्प है. प्राणायाम धूप है. प्रत्याहार नैवेद्य है. शान्ति सलिल है. वैराग्य चन्दन है. अस्तेय प्रदक्षिणा है. इस प्रकार का शिर्वाचन शिवलोकप्रद और शिवात्म विज्ञानप्रद है. शिवयोगी , शिव ज्ञानी, शिवजापी , शिवतापी और शिवकर्मी -ये पांचों निःसंदेह मुक्तिदायक है. शिवलिंग के पूजन की विशेष महिमा बतायी गयी है. पूजन के क्षेत्र में शिवोपासना अत्यन्त ही सरल है. मंदिर आदि स्थानों में पूर्व प्रतिष्ठित लिंग, स्वयम्भू लिंग तथा ज्योतिर्लिंग आदि देवों की पूजा में आवाहन – विसर्जन की आवश्यकता नहीं होती , विशेष रूप से पार्थिव – लिंगपूजन में प्रतिष्ठा तथा आवाहन – विसर्जन आवश्यक होता है. शास्त्रों में उल्लेख है :
शिवलिंगोऽपि सर्वेशां देवानां पूजनं भवेत्. सर्वलोकमये चस्माच्छिव
शक्तिर्विभुः प्रभुः ।।
शिव की उपासना में विशेष नियमों का विधान
भगवान शिव के उपासक के लिए कुछ विशेष नियमों का विधान है , जिसमें त्रिपुंड – धारण , भस्मावलेपन , रुद्राक्ष धारण आदि आवश्यक माना जाता है. अपने जिस इष्टदेव की उपासना करनी हो , अन्तर और वाह्य दोनों प्रकार से उस देवता के स्वरूप में स्थित होना चाहिए. इसीलिए जिसका अन्तर्मन जितना शुद्ध होगा उसे इष्टदेव की उपासना से उतनी ही जल्दी लाभ प्राप्त होगा. इसी प्रकार वाह्य रूप से भी देवरूप होकर ही उपासना करने का विधान है. वैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग की वाह्य उपचारों के साथ – साथ अन्य कई प्रकार की उपासना विधि बतायी गयी है जो विभिन्न फलों की प्रदात्री है. मंत्र – उपासना में पंचाक्षर नमः शिवाय , षडाक्षर – ॐ नमः शिवाय मन्त्र का जप , लघु मृत्युंजय , महामृत्युंजय आदि मंत्रों का जप विशेष रूप से प्रशस्त है. इन जप- अनुष्ठान आदि से मृत्यु भय दूर होकर दीर्घायुष्य की प्राप्ति होती है. साथ ही अमरत्व अर्थात् मोक्ष की प्राप्ति भी होती है. भगवान वैद्यनाथ की उपासना में यजुर्वेद की रुद्राष्टाध्यायी का विशेष महत्व है. समस्त वेदराशि के मध्य मणि के रूप में यह रुद्राध्यायी विराजमान है. रुद्राष्टाध्यायी का सीधा पाठ षडंग कहलाता है. नमक – चमक से युक्त ग्यारह अनुवाकों में किया गया पाठ उकादशिनी रुद्री के नाम से प्रसिद्ध है. यह अनुष्ठान तीन प्रकार से होता है. पाठात्मक , अभिषेकात्मक और हवनात्मक. भगवान वैद्यनाथ को अभिषेक अत्यधिक प्रिय है. अत : अभिषेकात्मक अनुष्ठान वैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग की आराधना में विशेष प्रशस्त माना जाता है. इनकी प्रसन्नता के लिए गंगाजल के अतिरिक्त रत्नोदक , इक्षुरस , दुग्ध , पंचामृत आदि अनेक द्रव्यों से रुद्राष्टाध्यायी के मंत्रों द्वारा अभिषेक किया जाता है.
साभार, श्रीश्री वैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग वांड्मय
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