भूत पंचक की उत्पत्ति की जानकारी देता है बाबा बैद्यनाथ का पंचशूल
बाबा बैद्यनाथ मंदिर के शिखर पर स्थित पंचशूल भूत पंचक की उत्पति की भी जानकारी देता है. प्रकृति से महत्व प्रकट हुआ. महत्व के तीन गुणों से त्रिविध अहंकार की उत्पति हुई. अहंकार से पांच तन्मात्राएं हुईं और उन तन्मात्राओं से पांच भूत प्रकट हुए.
डॉ मोतीलाल द्वारी. भूत पंचक : बाबा बैद्यनाथ मंदिर के शिखर पर स्थित पंचशूल भूत पंचक की उत्पति की भी जानकारी देता है. प्रकृति से महत्व प्रकट हुआ. महत्व के तीन गुणों से त्रिविध अहंकार की उत्पति हुई. अहंकार से पांच तन्मात्राएं हुईं और उन तन्मात्राओं से पांच भूत प्रकट हुए. पांच तन्मात्राएं शब्द, स्पर्श रूप, रस और गंध हैं. इन से प्रकट पांच भूत आकाश, वायु,अग्नि, जल और पृथ्वी हैं. वाक, पाणि, पाद, पायु तथा उपस्थ ये पांच कर्म इंद्रियां हैं. श्रोत, नासिका, नेत्र, रसना और त्वक ये पांच ज्ञानेंद्रियां हैं. प्राण, अपान, समान, उदान और व्यान ये प्राणादि पंचक हैं. नाग, कूर्म, वृकल, देवदत्त और धनंजय, ये पांच वायु पंचक हैं.
प्राण प्रयाण करता है. इसी से इसको प्राण कहा गया है, जो कुछ भोजन किया जाता है, उसे जो वायु नीचे ले जाती है, उसे अपान कहते हैं. जो वायु संपूर्ण अंगों को बढ़ाती हुई, उनमें व्याप्त रहती है, उसका नाम व्यान है. जो वायु मर्म स्थानों को उद्वेगित करती है, उसकी उदान संज्ञा है. जो वायु सब अंगों को सम भाव से ले चलती है, वह अपने उस सम नयन रूप कर्म से समान कहलाती है. ये प्राणादि पंचक के कार्य के कार्य हैं. वायु पंचक के कार्य इस प्रकार हैं – मुख से कुछ उगलने में कारण भूत वायु को नाग कहा गया है. आंख को खोलने के व्यापार में कूर्म नामक वायु की स्थिति है. छींक में कृकल और जंभाई में देवदत्त नामक वायु की स्थिति है. धनंजय नामक वायु संपूर्ण शरीर में व्याप्त रहता है. यह मृतक के शरीर को भी नहीं छोड़ता.
भूत पंचक के अंतर्गत पंचशूल इन छह प्रकार के पंचकों के जानकारी इसलिए देता है कि योग साधक को अन्ननमय और प्राणमय कोशों के भेदन में सुविधा हो. यम, नियम और आसन की सिद्धि से अन्नमय कोश की सिद्धि होती है. प्रणायाम की साधना इसमें बड़ी मदद पहुंचाती है. क्रम से अभ्यास में लाया हुआ यह प्राणायाम जब उचित मात्रा से युक्त हो जाता है, तब वह कर्ता के सारे दोषों को दग्ध कर देता है और उसके शरीर की रक्षा करता है.
प्राणायाम द्वारा प्राणों पर विजय प्राप्त होने से मल-मूत्र और कफ की मात्रा घटने लगती है. विलंब से सांसे चलती हैं. शरीर में हल्कापन और शीघ्र चलने की शक्ति प्रकट होती है. हृदय में उत्साह बढ़ने लगता है तथा स्वर में मिठास आ जाती है. समस्त रोगों का नाश हो जाता है और बल, तेज व सौंदर्य की वृद्धि होती है. धृति, मेधा, युवापन, स्थिरता और प्रसन्नता आती है. ये सभी लक्षण प्राणायाम के सिद्ध होने से प्रकट होने लगते हैं. तप, प्रायश्चित, यज्ञ, दान और व्रतादि जितने भी साधन हैं, ये सभी प्राणायाम के 16 वीं कला के भी बराबर नहीं है.
अपने-अपने विषय में अशक्त हुई इंद्रियाें को वहां से हटाकर अपने भीतर निगृहीत करने के साधन को प्रत्याहार कहा गया है. साधक को चाहिए कि वह ज्ञान-वैराग्य का आश्रय ले इंद्रियां रूपी अश्वों को शीघ्र ही वशीभूत करके स्वयं ही आत्म तत्व का साक्षात्कार करे. बैद्यनाथ आत्मलिंग ही हैं. चित्त को किसी स्थान विशेष में बांधना, स्थिर करना संक्षेप में धारणा का स्वरूप है. भगवान शिव के सिवा दूसरा कोई स्थान उत्तम नहीं है. अन्य स्थानों में त्रिविध दोष विद्यमान रहते हैं. शिव में स्थापित हुआ मन जब अपने लक्ष्य से च्युत न हो तो धारणा की सिद्धि समझाना चाहिए. धारणा के अभ्यास से मन को धीर बनाया जाता है.
ध्यान में, ध्यै चिंतायाम् धातु माना गया है. विक्षेप रहित चित्त से शिव को बारंबार चिंतन करना ध्यान है. शिव ही परम ध्येय हैं. यह अथर्व वेद की श्रुति का अंतिम निर्णय है. इसी प्रकार शिव भी परम ध्येय हैं. दोनों में सदा अद्वैत संबंध रहता है. बैद्यनाथ का विग्रह अर्द्ध नारीश्वर का ही है. उनके आधे अंग में त्रिपुर सुंदरी विराजमान रहती हैं. ये ही संपूर्ण भूतों में व्याप्त हैं. शिव और शिवा नाना रूपों में ध्यान करने योग्य हैं. इस ध्यान से दो प्रयोजन सिद्ध होते हैं, पहला मोक्ष और दूसरा अणिमादि सिद्धियां. सिद्धियां लक्ष्य प्राप्ति में विघ्न होती हैं. इसलिए साधक सिद्धियों को ठुकराकर शिव दर्शन की ओर बढ़ जाते हैं. साधक जप से थक कर ध्यान और ध्यान से थक कर पुन: जप में लीन रहते हैं. इस तरह जप और ध्यान में लगे हुए पुरुष का योग जल्दी सिद्ध हो जाता है. बारह प्राणायामों की एक धारणा और बारह धारणाओं का एक ध्यान होता है. बारह ध्यान की एक समाधि कही गयी है. समाधि योग का अंतिम लक्ष्य है. समाधि में साधक बुझी हुई अग्नि के समान शांत हो जाता है. पंचभूतों के प्रपंच निष्क्रिय हो जाते हैं. मन का संकल्प- विकल्प पूर्णत: बंद हो जाता है. शिव में लीन हुए योगी को समाधिस्थ कहा जाता है. मन्तम वायु प्रवाह से जिस प्रकार दीप की लौ निष्पंद जलती है, उसी प्रकार समाधि- निष्ठ व्यक्ति भी अविचलित रहते हैं. प्रागढ़ भक्ति में योग की सारी क्रियाएं स्वत: सिद्ध रहती हैं. अतएव बाबा बैद्यनाथ पर दृढ़ भक्ति के साथ जलार्पण करते रहना चाहिए.
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