बाबा बैद्यनाथ की महिमा व ख्याति से प्रेरित होकर देवघर में बस गये पुरोहित
लोग बैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग की ख्याति और महिमा एवं धार्मिक भाव से होकर यहां के प्रधान पुरोहितों के परामर्श से बैद्यनाथ धाम में बस गये और तीर्थ पुरोहित वृत्ति करने लगे. पंडित शिवराम झा ने यहां के तीर्थपुरोहितों के संबंध में लिखा है.
उन दिनों समाज की यही स्थिति थी. मुस्लिम स्रोतों से भी यह ज्ञात होता है उपत्य पुरण के कारण वहां के ब्राह्मण लोग अन्य स्थलों में जाने के लिए विवश हो गये थे. 1312-24 ई. के बीच ऐसी घटनाएं अधिक हुई, जहां तक बंगाल के राट्रीय ब्राह्मण और कान्यकुब्जों के आने की बात है, ये लोग बैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग की ख्याति और महिमा एवं धार्मिक भाव से होकर यहां के प्रधान पुरोहितों के परामर्श से बैद्यनाथ धाम में बस गये और तीर्थ पुरोहित वृत्ति करने लगे. पंडित शिवराम झा ने यहां के तीर्थपुरोहितों के संबंध में लिखा है. कुछ दिनों के बाद भगवान शंकर ने गिद्धौर और नगर (वीरभूम ) दोनों को स्वप्न में कहा कि हमारी पूजा-अर्चना विधिवत नहीं होती है, इसलिए कामरथी ब्राह्मण जो यहां आते हैं, उनका निवास कराकर हमारा पूजन करायें.
करीब साढ़े पांच सौ वर्ष पूर्व की बात है. तदनुसार कामरथी ब्राह्मणों को गिद्धौर महाराज और नगर के नवाब ने प्रयास कर यहां बसाया, जिसमें 13 विभिन्न गोत्रों के उत्तम ब्राह्मण थे. उन्हें अपने सारे अधिकार और दायित्व सौंप दिये और तबसे मैथिल ब्राह्मण के हाथ में इस तीर्थस्थान को व्यवस्था चली आ रही है. उपर्युक्त कथन से यह स्पष्ट होता है कि आज से साढ़े पांच सौ वर्ष पूर्व तीर्थपुरोहित गण यहां आये, किन्तु इसमें ऐतिहासिक घटना बोध की विसंगति है. महाराजा गिद्धौर और नगर राज्य का प्रशासनिक संतुलन समकालीन नहीं है. नगर के शासकों का वर्चस्व 18वीं सदी में यहां पर हुआ था, जबकि गिद्धौर राजा का वर्चस्व 16वीं शताब्दी से मान्य है. नगर राज्य का वर्चस्व कुछ ही दिनों के लिए था, लेकिन गिद्धौर राज्य का वर्चस्व 16वीं सदी से आजतक किसी न किसी रूप में है. इसलिए साढ़े पांच सौ वर्षों की अवधि को 18वीं सदी की स्वप्नमयी मान्यता से पुष्ट नहीं किया जा सकता है. इस संबंध में यहां के तीर्थपुरोहितों के प्रशासनिक स्तर में प्रधान तीर्थपुरोहित को सरदार पंडा या मठाधीश कहा जाता है.
मठाधीश-परम्परा की एक लंबी सूची है और उस सूची का अवलोकन आवश्यक है, जिससे काल निर्धारण की प्रक्रिया को स्पष्ट किया जा सकता है.
सूची इस प्रकार है : मुकुन्द, जुदन, मुकुन्द, चीकू, रघुनाथ, चीकू, मानू, वामदेव, खेमकरण, सदानन्द, चन्द्रमोहन, रत्नपाणि, जयनारायण, यदुन्नंदन, टीकाराम, देवकीनन्दन, नारायणदत्त, रामदत्त, आनन्ददत्त,परमानन्द, सर्वानंद, ईश्वरीनन्द, शैलजानन्द, उमेशनन्द, भवप्रीतानंदउपर्युक्त सूची से यह ज्ञात होता है कि सन् 1970 तक 25 प्रधान पुरोहित वैद्यनाथ मंदिर के मठाधीश हो चुके हैं. ऐतिहासिक दृष्टि से इनकी कालावधि को 750 वर्षों से निस्तर प्रचलित माना जा सकता है. इसलिए साढ़े पांच सौ वर्ष वाली मान्यता सटीक नहीं लगती है. इस संबंध में ऐतिहासिक विवरणी और यहां के दस्तावेजों को माना जा सकता है.
हस्तलिखित एवं ताम्रपत्रों के आधार पर 375-90 वर्षों के यजमानी लेख मिलते हैं, किन्तु द्वारी परिवार में 650 वर्ष पुराना एक अभिलेख मिला है, जो तिरहुता लिपि या बंगला लिपि में है, जिससे यह ज्ञात होता है कि आज से 650 वर्ष पूर्व भी तीर्थयात्री यहां आते थे और यहां के तीर्थपुरोहितों को दान-दक्षिणा देकर वापस चले जाते थे. तीर्थपुरोहितों के बीच से ही किसी एक को प्रधान तीर्थपुरोहित चुना जाता था. प्रारम्भ में यह चुनाव सदाचार शास्त्रीय ज्ञान पर आधारित रहा, पीछे विभिन्न नियमों के अन्तर्गत यह बनने लगा. नियमों के निर्माण की परंपरा 18वीं सदी से आरम्भ हुई. इसके पूर्व आपसी विचार के माध्यम से योग्य ब्राह्मणों को यहां तीर्थपुरोहितों को उपर्युक्त वर्णित ऐतिहासिकता के प्रसंग से जोड़ा जाता है. इस संबंध में गिद्धौर राज की वंशावलों को जानना आवश्यक प्रतीत होता है, जो इस प्रकार हैवीरविक्रम सिंह (11वीं सदी), पूरनमल (1596 ई0)हरि सिंहदर्प सिंहकेसरी सिंहपहाड़ सिंहदल्लन सिंहकृष्णा सिंहपद्मन सिंहगोपाल सिंहयशवन्त सिंह ( पुत्रहीन)जयमंगल सिंह (भाई)शिवप्रसाद सिंहरावणेश्वर सिंहचन्द्रमौलेश्वर प्रसाद सिंहचन्द्रचूड़ सिंहप्रताप सिंहराजराजेश्वर प्रसाद सिंहउपर्युक्त वंशावली से यह ज्ञात होता है कि 11वीं सदी से 15वीं सदी तक की अवधि में गिद्धौर राजा का संबंध इस मंदिर से तीर्थयात्री या भक्त के रूप में हो रहा होगा.
16वीं सदी से गिद्धौर राज का संबंध इस मंदिर से अत्यधिक घनिष्ट रूप से स्थापित हो गया, जो आजतक वर्तमान है. चन्देल क्षत्रिय होने के कारण गो, ब्राह्मण प्रतिपालक होना इनका धर्म है. इसलिए यह कहना कि इन लोगों ने ही यहां के तीर्थपुरोहितों को बसाया, ऐतिहासिक दृष्टि से समीचीन नहीं जान पड़ता है. यहां के तीर्थपुरोहितों के इतिहास के संबंध में और भी अनेक बातें विचारणीय हैं. विशेषकर इनके मिथिला से आगमन के संबंध में एक निश्चित तिथि का सीमांकन अभी तक नहीं हो सका है, किन्तु मुस्लिम काल के इतिहास के समय बहुत सी ऐतिहासिकता को जानकारी को हो प्रमाण माना जाता है. सामान्य रूप से जनसंख्या के एक जगह से दूसरी जगह स्थानांतरित होने में विदेशी आक्रमण एवं प्राकृतिक विपदा ही कारण हैं. इस संबंध में यह कहा जा सकता है कि 11वीं सदी से 18वीं सदी तक इनके प्रव्रजन (इमिग्रेशन) के निम्नलिखित कारण बताये जाते हैं :
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वैद्यनाथ मंदिर के अभिलेखों के आधार पर 14वीं सदी के पूर्व ही इनके आगमन की पुष्टि होती है.
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यह संभव है कि मिथिला के ब्राह्मणों को यहाँ आने का अवसर प्राप्त हुआ और यहां की प्रकृति, सुषमा एवं निरपेक्ष जीवन पद्धति से प्रभावित होकर ये यहीं बस गये.
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13वीं सदी के अंतिम दशक से ही मुस्लिम आक्रमण का आतंक मिथिला के ब्राह्मणों के मस्तिष्क पर छाया हुआ था. वहां के कुलीन ब्राह्मण अपने आचार-विचार एवं धर्म निष्ठा को किसी भी कीमत पर बचाना चाहते थे, इसलिए मुस्लिम आक्रमण के पूर्व ही ये लोग यहां आकर बस गये.
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तीर्थपुरोहितों के यहां बसने की मौलिक परंपरा में राढ़ीय ब्राह्मण और कान्यकुब्ज ब्राह्मण परिवार का आगमन रत्नपाणि ओझा के समय में हुआ. सरकारी दस्तावेज से भी इसकी पुष्टि होती है.
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तीर्थपुरोहितों के मिथिला से आगमन के मूल में प्राकृतिक दुर्घटनाओं का हाथ है. उत्तर बिहार में भूकंप और बाढ़ की विभीषिका का तांडव नृत्य बराबर होता रहा है. वहां के निवासी इससे त्रस्त रहा करते थे. परिणामस्वरूप उन लोगों ने झारखंड के इस पुण्य स्थल में अपने को सुरक्षित और सुखमय महसूस किया. यहां बाढ़ और भूकंप के प्रकोप के आसार नहीं के बराबर हैं. विस्थापितों की इस समस्या की शुरुआत हरि सिंह देव के राज्यकाल से प्रारम्भ हुई, जिसका समय 1303 से 1307 माना जाता है. इतिहासकारों की यह मान्यता है कि 13वीं सदी के अंतिम दशक में प्रारम्भ हुआ, सही नहीं है. मिथिला के राजनीतिक परिवर्तन के इतिहास के साथ ही वहां के मैथिल ब्राह्मणों का प्रवास जुड़ा हुआ है. कुछ लोग शक्ति सिंह की मृत्यु के बाद के समय को इसके साथ सम्बद्ध करते हैं, जिसका समय 1126 ई0 है. उस समय हरि सिंह छोटे थे.
साभार, श्रीश्री वैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग वांड्मय