संताली साहित्य का धार्मिक महत्व…

किसी भी धर्म, समुदाय के जीवन में धर्म का विशेष महत्व होता है. नीति और धर्म के ऊपर ही जगत के सामाजिक प्रतिष्ठान अवस्थित हैं. यों तो सभी धर्म एक ही मूल धर्म के विकास हैं, लेकिन वाह्य दृष्टि से देश काल के भेद से सबके प्रतिबिम्ब में अनेक भेदोपभेद स्वाभाविक है.

By Prabhat Khabar News Desk | August 11, 2023 2:38 PM

डॉ शंकर मोहन झा: संताल परगना में अंग्रेज सरकार के समय एक विशेष उद्देश्य से संतालों को लाकर बसाया गया. किसी भी धर्म, समुदाय के जीवन में धर्म का विशेष महत्व होता है. नीति और धर्म के ऊपर ही जगत के सामाजिक प्रतिष्ठान अवस्थित हैं. यों तो सभी धर्म एक ही मूल धर्म के विकास हैं, लेकिन वाह्य दृष्टि से देश काल के भेद से सबके प्रतिबिम्ब में अनेक भेदोपभेद स्वाभाविक है. संताली साहित्य में धर्म के संबंध में बहुत विस्तार से उनहत्तर तक विचार तो नहीं मिलता, परंतु थोड़ा बहुत जिक्र लोकगीतों, लोककथाओं के अंतर्गत मिलता है. संताल लोग सादा जीवन, संतोष के साथ बिताने के सतत अभ्यासी हैं. सच है कि हमारे देश में मिशनरी लोगों के आगमन से अनेक कार्यों तरह साहित्य संताली साहित्य के बिखरे सूत्रों के एकत्रीकरण, संकलन कार्य शुरू हुआ. हर प्रदेश की भिन्न-भिन प्रजाति के मनुष्यों की, दृष्टि-चर्क के बारे में बड़ी बलवती जिज्ञासा रहा करती है. संताली साहित्य में भी अन्य धर्मों के साहित्य की तरह ही धरती के सृजन, मनुष्य की उत्पत्ति की कथा अनेक कथाओं में तरह-तरह से पिरोकर समझाने की कोशिश हुई है. लोक कथाओं में बतलाया गया है कि कैसे समूची धरती एक समय जलमग्न थी.

कच्छपों ने मिट्टी को ऊपर कर धरती को बास- योग्य बनाया. ठाकुर जी ने सृजन की इच्छा से सर्वप्रथम जलीय जीवों को बनाया, फिर अपने शरीर के मैल से मनुष्य का निर्माण किया. मनुष्य पिचू हाड़ाम और पिलचू बूढ़ी आदि मानव है. मारंग बुरु और जाहेर एरा आदिदेव और देवी हैं. ये आदि देव और आदि देवी ठाकुरजी के इंगित पर सक्रिय रहकर सारे कार्य सम्पन्न करते हैं. धर्म और धर्म के प्रति आस्था ने इनके आचरण को अनुशासित रखने का कार्य अभी तक किया है. प्रकृति के सभी रूपों के प्रति आस्थाशील इनका समूचा समाज बीज-वपन, हरीतिमा के बने रहने की कामना और फसल के परिपक्व होने तक की प्रार्थना में संलग्न तो रहता ही है, फसल काटने एवं खेत खलिहान तक लाने के कार्य को भी ये बड़े उत्साह के साथ मनाते हैं. धरती की उत्सवप्रियता को इन्हीं पृथ्वीपुत्रों ने अभी तक संरक्षित कर रखा है.

इनके सभी पर्व-परवा प्रकृति से इनके घनिष्ठ रिश्ते की जीवंत कथाएं हैं. विराट भारतीय सनातन धर्म की तरह पेड़ों, पहाड़ों, नदियों, प्रकृति के विभिन्न रूपों में ये आज भी जग के सिरजनहार की छवि के दर्शन करते हैं. इनकी इस आस्था को इनके करमू-धरमू ( करमा पर्व) की पूजा, सोहराय, बाहा आदि सभी पर्वों में देखा जा सकता है. करमा पर्व झारखंड में इनके समाज से फैलकर पूरे हिन्दू समाज में उत्साह के साथ मनाया जाता है. सोहराय नयी फसल का पर्व है. अन्य अनेक भारतीय लोक कथाओं की तरह मानव या राजा-राजकुमार जब वर्जित प्रदेश में प्रवेश करते हैं तो कई तरह की विपत्तियों में फंसते हैं और परमपिता संरक्षा के लिए किसी ने किसी को भेजते हैं. इनकी लोक कथाएं बतलाती हैं कि बहन अपने राजा भाई की जान बचाती है. अतः इस पर्व को बहन के सम्मान या नारी के सम्मान का संकल्प-पर्व भी के मान सकते हैं. फसल के घर में आने पर वर्ष भर के सारे रुके-पड़े कार्य सुचारू रूप से चल पड़ते हैं.

कृषि-संस्कृति की छतरी में जीवन-यापन करने वाला देश अनाज को उचित महत्व प्रदान कर इस पर्व में अपनी कृतज्ञता ज्ञापित करता है. बाहा होली की तरह बसंतागम का पर्व है. भारतीय समाज में होली उन्मुक्तता की जगह स्वच्छन्दता का पर्व हो गया है. रंग के साथ कीचड़-कर्दम का प्रयोग रिश्तों की अनदेखी और आतंक के पर्याय के रूप में चिह्नित है. संताल समाज ने सादगी के साथ पानी का प्रयोग कर और किनके साथ हास- उल्लास बांटना है, किनसे परहेज कर सम्मान के साथ किनारे लग जाना है, इसका सर्वाधिक ख्याल आज भी उदाहरणीय रूप में सुरक्षित रखा है. जूथार, एरोसिं, हरियरसिं आदि छोटे- छोटे पर्व पूजा से सम्पन्न होते हैं. प्रकृति पूजक संतालों के संताली गीतों का ताप लेकर कभी ठाकुर प्रसाद सिंह ने इस अंचल में ‘वंशी और मादल’ की रचना की और व्यापक हिन्दी समाज को विशिष्ट मौलिक उपहार दिया था. प्रो ताराचरण खवाड़े के गीतों की दुनिया का एक कोना संताली प्रकृति के गीतों के लिए आरक्षित है.

ज्ञानेन्द्रपति सीधे-साधे संतालों के शोषण के खिलाफ अपनी कविताओं में मुखर हैं. डॉ. डोमन साहू समीर ने इनके साहित्य के संरक्षण, उन्नयन में अपनी जिन्दगी खपा दी. डब्ल्यूबी आर्चर के साथ गुलाम भारत में काम किया. आजाद भारत में पीओ बोडिंग की संतानी अंग्रेजी डिक्शनरी का संताली हिन्दी कोश एवं हिन्दी संताली कोश रूप में मानक अनुवाद किया. खगेंद्र के उपन्यासों में संताल समाज के धर्म, संस्कृति और आचरण की बानगी कदम-कदम पर मिलती चलती है. डॉ श्याम सुन्दर घोषने भी इनके साहित्य में उपलब्ध धर्म – संस्कृति आदि पर प्रकाश डालने की चेष्टा की है.

प्रो. दयाल मंडल की अंतवीर्क्षा से भी संताल साहित्य पर प्रकाश पड़ता है. आस पड़ोस में रहने वाले व्यक्ति हों कि समाज, वे एक-दूसरे को कमोबेस प्रभावित करते ही है. आग्नेय परिवार की भाषा संताली और शहर की चौंध से विरत संताल लोगों के जीवन में अभी मिलावट का जहर उतना नहीं घुल पाया है. फिर भी बंगला, खोरठा, की शब्दावली और क्रिया रूपों में रामायण की घटनाओं का इनके लोकगीतों पर प्रभाव, खासकर लागडे में देखा जा सकता है. राम के वन गमन का प्रसंग हो या धनुष यज्ञ की कहानी, इनके लोकगीतों में उत्साह के साथ उपस्थित है. बारहमन का लोहे का धनुष राम ने कैसे उठाकर तोड़ा दिया. कैसे जंगल की धूप से बचने के लिए राम ने आम की डाल तोड़ कर सीता को सर पर रखने की सलाह दी, इन बातों को संताल अपने लागड़े लोकगीतों में गाते हैं.

राम सीता होयतो बिहा दान

चालो सीता धीरे-धीरे

इस प्रकार हम देखते हैं कि किस प्रकार संताली साहित्य में वर्णित धर्म इनके समूचे जीवन-चक्र को सही दिशा में चलाने में सक्रिय और समर्थ है.

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