उत्तरवाहिनी गंगा से जल भरकर पांव पैदल चलकर भोलेनाथ को अर्पित करने की परंपरा अति प्राचीन काल से चली आ रही है. कांवर यात्रा (Kanwar Yatra) के प्रारंभ होने के संबंध में अनेक मान्यताएं हैं. इस संदर्भ में कुछ लोगों का कहना है कि कांवर-यात्रा के सूत्रधार लंकाधिपति रावण ही हैं, जो प्रतिदिन लंका से गंगोत्री जाकर जल भरकर कैलाश में शिव को लंका ले जाने हेतु मनाने के लिए अर्पण करते थे. मान्यता है कि मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम ने भी उत्तरवाहिनी गंगा से जल लाकर बाबा बैद्यनाथ को अर्पित किया था. कुछ लोग कांवर यात्रा के शुभारंभ को परशुराम से जोड़ते हैं. कुछ लोगों का कहना है कि श्रवण कुमार ने कांवर परंपरा की शुरुआत की थी.
भक्ति काल के प्रारंभ में यह परंपरा साधु संन्यासी के द्वारा संपादित किया जाता था जिसे हठयोग की श्रेणी में रखा जाता था. क्यों न हो दुर्गम वनों, नदी-नाले, पहाड़ पर्वत को पार करते हुए यह यात्रा पूरी की जाती थी. कुछ लोग तो इस क्रम में जंगली जानवरों के भी शिकार हो जाते थे. न कोई रहने का स्थान और न खाने का ठिकाना. हठयोगी “हर शिव” के जयघोषों के साथ कांधे पर कांवर लेकर भगवान भोलेनाथ को जल अर्पण करने को दुर्गम मार्ग पर निकल पड़ते थे. धीरे धीरे यह परंपरा गृहस्थों में भी शुरू हुई जिसका श्रेय मिथिलांचल के लोगों को जाता है. महान कवि विद्यापति के काव्य शास्त्रों में कांवर यात्रा का विस्तृत वर्णन है जो खुद भी महान शिव भक्त थे. कहा जाता था कि भोलेनाथ विद्यापति के भक्ति से इतने प्रसन्न थे कि उनके साथ उगना के रूप में रहते थे.
बैद्यनाथ धाम के तीर्थ पुरोहितों का अतुलनीय योगदान
कांवर यात्रा को और प्रभावशील बनाने में बैद्यनाथ धाम (Baidyanath Dham) के तीर्थ पुरोहितों का अतुलनीय योगदान है और आज भी यह परंपरा उनके द्वारा चली आ रही है. आज कांवर यात्रा एक विस्तृत रूप ले चुकी है और सभी आयु वर्ग के लोग श्रावण मास व अन्य माह में कांवर यात्रा पर निकल पड़ते हैं. विकास के क्रम के साथ कांवर यात्रा में श्रद्धालुओं की संख्या में उत्तरोत्तर वृद्धि हो रही है और श्रावण मास में प्रतिदिन हजारों की संख्या में लोग भोले बाबा को गंगाजल अर्पित करते हैं और अक्षय पुण्य के भागी बनते हैं. पुराणों में पांव पैदल चलकर जल अर्पित करने से अश्वमेध यज्ञ करने के बराबर फल प्राप्त होने की बात कही गयी है.
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नशे का सेवन वर्जित
कांवर यात्रा पूर्ण रूप से एक सात्विक धार्मिक अनुष्ठान है जिसमें किसी भी प्रकार के नशे का सेवन वर्जित है. पवित्रता इसके आवरण है तथा भोलेनाथ के प्रति समर्पण इसका उद्देश्य है. मूलतः कांवर दो प्रकार के होते हैं बैकुंठी तथा खड़ा काँवर. हाल के दिनों में डाक कांवर की परंपरा शुरू हुई है, जिसका कोई शास्त्रीय उल्लेख नहीं है. लेकिन कुछ आर्थिक कारणों से, कुछ समयाभाव के कारण लोग आकर्षित हुए थे जो अब किसी प्रकार की विशेष सुविधा न मिलने के कारण कम हो रही है. सामान्यतः लोगों को बैकुंठी कांवर की यात्रा का ही संकल्प लेना चाहिए.
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कांवरियों के लिए विशेष नियम
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संकल्प मंत्रोच्चारण के साथ कांवर में गंगा जल भरे.
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कांवर रखने और उठाने के पहले मंत्रोच्चारण एवं प्रणाम करें.
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कांवर हमेशा अपने से उंचे स्थान पर रखे तथा इससे दूरी पर बैठे. कांवर को माथे के उपर से पार ना करें.
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कांवर से कम से कम 12 हाथ की दूरी पर धूम्रपान, 24 हाथ की दूरी पर लघुशंका तथा सैकड़ों हाथ की दूरी पर ही शौच करें.
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विश्राम, खान-पान, शौच आदि के उपरांत स्नान कर ही पुन: कांवर उठावें.
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तेल-साबुन, चमड़े का सामान, जूता-चप्पल तथा शीशे के सामानों का उपयोग न करें.
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कांवर तथा खुद को कुत्ते के स्पर्श से बचावे.
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ब्रह्मचर्य धर्म का पालन करें तथा भोग विलास से कोसों दूर रहे.
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धार्मिक भावनाओं में रुचि बनाये रखें तथा तन मन धन से बोल बम का जाप करते रहे. ईश्वर में लीन रहे.
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परस्पर परोपकार और सहयोग की भावना बनाये रखें. सत्य एवं मृदुभाषी बने रहें एवं छल-कपट को पास न फटकने दें.
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