मोहली : एक शिल्पी जनजाति

मोहली जनजाति को झारखंड की जनजातियों में हम शिल्पी जनजाति कह सकते हैं. बांस में दक्षता इनकी थाती है. मुख्य रूप से मोहली रांची, लोहरदगा, गुमला, सिमडेगा, सिंहभूम, संथाल परगना, हजारीबाग, धनबाद आदि में रहते हैं.

By Prabhat Khabar News Desk | August 4, 2023 1:45 PM
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दीपक ठाकुर:

वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार, झारखंड में मोहली जनजाति की कुल आबादी 1,52,663 है. इनमें सबसे अधिक आबादी 31,764 रांची जिला एवं सबसे कम आबादी 75 कोडरमा जिला में निवासित हैं. इस समाज की परंपराओं और आय के साधनों से संबंधित प्रश्नों का अध्ययन अगर व्यापक ढंग से अंजाम किया जाय तो हमें एक सिक्के के दो पहलू नज़र आयेंगे. एक ओर तो अपनी परंपराओं और रीति-रिवाजों को लेकर यह समाज इतना समृद्ध है कि समाजशास्त्र के शोधार्थी अपनी जड़े खोजने के लिए इन तक पहुंचे और दूसरी तरफ इतने उपेक्षित की मूलभूत सुविधाओं से भी वंचित.

मोहली जनजाति का जिक्र आते ही बांस की कारीगरी आंखों के सामने आ जाता है. अक्खड़ लहलहाते बांसों को अपादमस्तक नेस्तानाबूद कर उनसे बांस के सूप, खांची, चटाइयां, टोकरियां, बरतन, बैलगाड़ियां, मकान, खिलौने, फर्नीचर, पेपर बना देखकर काफी आनंद आता है परंतु बांस के साथ जिस एक जनजाति का प्राकृतिक संबंध है, उस समाज से आखिर क्या-क्या बन रहे हैं ?

डॉक्टर ? इंजीनियर ? सिविल सेवक ? जमीनी संघर्ष का यह स्वरूप काफी अलग है. घरों, कार्यालयों के साज-सज्जा में चार-चांद लगाने वाले बांस मोहली जनजाति के लोगों को आधारभूत जिंदगी की जरूरतें भी मुहैया नहीं करवा पाती है. मोहली जनजाति को झारखंड की जनजातियों में हम शिल्पी जनजाति कह सकते हैं. बांस में दक्षता इनकी थाती है. मुख्य रूप से मोहली रांची, लोहरदगा, गुमला, सिमडेगा, सिंहभूम, संथाल परगना, हजारीबाग, धनबाद आदि में रहते हैं.

झारखंड के बाहर पूर्णिया जिला में भी इनकी थोड़ी आबादी है. छिटपुट रूप से और कई जिलों में इनका वज़ूद है. परंतु वज़ूद बचा रहे, आबाद हो; इस स्थापना पर गहरा प्रश्न-चिह्न लगा हुआ है. वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार, झारखंड में मोहली जनजाति की कुल आबादी 1,52,663 है. इनमें सबसे अधिक आबादी 31,764 रांची जिला एवं सबसे कम आबादी 75 कोडरमा जिला में निवासित हैं. इस समाज की परंपराओं और आय के साधनों से संबंधित प्रश्नों का अध्ययन अगर व्यापक ढंग से अंजाम किया जाय तो हमें एक सिक्के के दो पहलू नज़र आयेंगे.

एक ओर तो अपनी परंपराओं और रीति-रिवाजों को लेकर यह समाज इतना समृद्ध है कि समाजशास्त्र के शोधार्थी अपनी जड़े खोजने के लिए इन तक पहुंचे और दूसरी तरफ इतने उपेक्षित की मूलभूत सुविधाओं से भी वंचित. क्या आजादी के बाद विकास की इतनी सीढ़ियों पर पहुंचकर भी हम यह कहने का साहस रखते हैं कि सभी मोहली जनजाति के लोगों को बेहतर चिकित्सा सुविधा उपलब्ध है ? इस समाज के बच्चों के लिए बेहतर शिक्षा व्यवस्था उपलब्ध है ? आवास, बिजली, सड़क, पानी जैसी जरूरतें पूरी कर दी गयी है?

इनके शिल्प को संगठित करके बाजार उपलब्ध करा दिया गया है? कोई विशेष सर्वे किया जाता तो विभिन्न क्षेत्रों में इस पिछड़ेपन का कारण भयावह रूप से हमारे सामने आता. इस समुदाय के बड़े सदस्य जब भी अपने कारोबार में जुटते हैं तो घर परिवार के छोटे-छोटे बच्चे भी हाथ बंटाते हैं. इस कारण बच्चों की समुचित पढ़ाई भी नहीं होती है और उचित मजदूरी तथा आर्थिक अभाव के कारण उन बच्चों की पढ़ाई भी बीच में ही छूट जाती है. परंपरागत कारोबार से न्यूनतम मजदूरी भी नहीं मिलती है और यह काम छोड़कर दूसरा स्थायी काम भी इन्हें आसानी से नहीं मिलता है. सरकार के प्रयास अनगिनत हैं, योजनाएं दर्जनों हैं परंतु धरातल पर जब क्रियान्वयन की बात आती है तो सब धरा का धरा रह जाता है.

दरअसल हुक्मरानों से लेकर निचले स्तर के अफसरों तक विकास-यात्राओं को अमलीजामा पहनावे की जो प्रक्रिया है जिसके माध्यम से समाज के अंतिम पायदान पर मौजूद लोगों तक सुविधाएं पहुंचाना निर्धारित है उसे आज तक पूर्णत: दुरूस्त न किया जा सका. ध्यातव्य है कि इससे इतर फिर गांव की सरकारों का भी गठन हुआ उससे भी महत्वपूर्ण बात है कि उसमें समाज के पिछड़े लोगों को प्रतिनिधित्व दिया गया. फिर भी उद्देश्य की पूर्ति नदारद है .

तकनीकी चौकसी का जामा पहनाने के बाद भी कुछ – न -कुछ कमी रह ही जा रही है. सिस्टम ऑनलाइन हुआ तो बिचौलिए भी तकनीकी रूप से दक्ष हो गये हैं. उनके तौर-तरीके भी तकनीकी रूप से दक्ष होकर आम जनता को परेशान करते हैं. सिस्टम को किस स्तर तक कसा जाय इस मुद्दे की प्रासंगिकता तो बनी हुई है ही इसके साथ ही बात नैतिकता की घुट्टी पिलाने की है. सिस्टम की गलती के कारण राजनीतिक भागीदारी के क्षेत्र में भी मोहली समाज की भागीदारी नगण्य है और सरकारी नौकरियों में भी इस समाज के आंकड़े खंगाले तो स्थिति काफी निराशाजनक है.

शादियों में डलिया बनाकर बेचना आजीविका तो नहीं चला सकती भले ही चंद दिनों की रोटी जुगाड़ कर दे. सरकार के मंत्रालयों के अधीन ही बांस के इतने काम होते हैं कि इस समुदाय के लिए एक स्थायी रोजगार का राह खुल सकता है परंतु बात है कि ये पथ तैयार कौन करेगा? किंतु- परंतुओं के बीच झुलती व्यवस्थाओं ने न जाने कितनी संभावनाओं का भ्रूण हत्या कर डाला. झारखंड में पिछली सरकार में पहली बार पहाड़िया समुदाय को लेकर कुछ ठोस कदम देखने को मिले थे, जिनका क्रियान्वयन आज भी हो रहा है पर 181 की अनुपस्थिति का प्रभाव उसमें भी परिलक्षित होता है . परंतु मोहली समाज के लिए कोई ठोस कदम देखने को नहीं मिलता है.

इस समाज की सहजता ही इनके लिए अभिशाप बन गया है . नित -नूतन तरक्की करते तकनीकी विकास का पक्ष क्या इन तक नहीं पहुंचा है? वो पहुंचा है , परंतु तकनीकी का पहुंचना और सत्ताओं द्वारा उसे पहुंचाकर उसके माध्यम से जिंदगी को सहज बनाना दोनों में अंतर है. तकनीकी के जरिए ऐसे जनजाति समुदायों के एक-एक सदस्य की व्यक्तिगत उन्नति पर ध्यान रखा जा सकता है .

जहां केंद्रीय और राज्य सरकारों के तमाम विकास योजनाओं को सूचीबद्ध करके उन्हें लाभान्वित किया जा सकता है. वहीं तमाम तरह की उनकी दिक्कतों को भी सुलझाया जा सकता है . बात शुचिता और स्पष्ट विज़न की है. रामचरितमानस में तुलसीदास जी जिस रामराज्य की परिकल्पना प्रस्तुत करते हैं उसमें दरअसल सेव्य-सेवक के भाव का जो समावेश है वही राजा राम की जनता के खुशहाली का परिचायक है. हमारे आज के हुक्मरान कहीं न कहीं इस भाव को समझने में चूक रहे हैं फलस्वरूप जो समाज सामाजिक व्यवस्था की नींव है, वहीं हाशिए के अभिशप्तता के कलंक को मिटा नहीं पा रही है.

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