झारखंड: मानव तस्करी और पलायन, जानें संताल परगना की बड़ी समस्या के बारे में विस्तार से
पलायन और मानव तस्करी संताल परगना की दो सबसे बड़ी समस्या है. मानव तस्करी के शिकार सबसे अधिक यहां का आदिवासी समाज हो रहा है.
संजीत मंडल, देवघर :
संताल परगना में जो सबसे अधिक गरीब, कुपोषित और जिंदगी से जूझ रहा है, वो है यहां का आदिवासी पहाड़िया समाज. इस समाज के सामने कुपोषण के अलावा ह्यूमन ट्रैफिकिंग और पलायन गंभीर समस्या है. पहाड़िया समाज के लोग रोजी रोजगार की तलाश में ये दूसरे राज्यों में पलायन करते हैं. इसी दरम्यान ये ट्रैफिकिंग के शिकार होते हैं. एक आंकड़े के मुताबिक 2021 में झारखंड में ट्रैफिकिंग के शिकार पीड़ितों की कुल संख्या 136 महिलाओं सहित 250 थी, जबकि भारत स्तर पर पीड़ितों की संख्या 6,533 थी, जिसमें 4,062 महिलाएं थीं.
आंकड़ों के अनुसार, बचाये गये पीड़ितों की संख्या झारखंड में 247 और भारत में 6,213 थी. हाल के वर्षों में संताल परगना सुखाड़ से प्रभावित रहा है. इस कारण कृषि प्रधान संताल परगना में किसानों को खेती के लाले पड़ गये हैं. क्योंकि यहां एक फसल धान ही अधिक होता है. लेकिन वह भी बारिश नहीं होने के कारण नहीं हो रहाहै. आदिवासी किसान जो खेती वगैरह करके अपना जीवन यापन किया करते थे, अभी उनके सामने परिवार चलाने की समस्या हो गयी है.
सूखे के दौरान, बाहरी दलाल सक्रिय हो जाते हैं और लड़कियों और उनके परिवारों को नौकरी का वादा करके फंसा लेते हैं. एक बार जब ये लड़कियां गांव छोड़ देती हैं, तो उन्हें शारीरिक व मानसिक शोषण का शिकार होना पड़ता है. उदाहरण के लिए, 2015 में, गोड्डा की एक 12 वर्षीय पहाड़िया लड़की की ट्रैफिकिंग की गयी थी और तीन साल बाद उसे हरियाणा के फरीदाबाद से बचाया गया था. उसके शरीर पर चाकू के जख्म थे. उसे तपेदिक हो गया था और बाद में उसकी मृत्यु हो गयी. 2013 में ह्यूमन ट्रैफिकिंग पर संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट में इस बात पर प्रकाश डाला गया कि कैसे झारखंड में आदिवासी लोग, जिनमें ‘लुप्तप्राय’ पहाड़िया भी शामिल हैं, ट्रैफिकिंग के शिकार हो रहे हैं.
शक्ति वाहिनी की एक रिपोर्ट :
रिपोर्ट में कहा गया है कि झारखंड से बच्चों की तस्करी ज्यादातर दिल्ली में सुव्यवस्थित प्लेसमेंट एजेंसी रैकेट के माध्यम से होती है. ये प्लेसमेंट एजेंसियां दिल्ली, फरीदाबाद, गुड़गांव और नोएडा सहित राष्ट्रीय राजधानी के घरों में आदिवासी बच्चों की आपूर्ति करती हैं. ये एजेंसियां ज्यादातर 11-16 साल के बच्चों को निशाना बनाती हैं, जो शोषण के बाद भी चुप्पी साधे रहते हैं.
ट्रैफिकिंग के शिकार लोगों को भीड़भाड़ वाले कमरों में रखा जाता है, जब तक उन्हें कहीं रखा नहीं जाता तब तक उन्हें जीवित रहने के लिए बमुश्किल खाना खिलाया जाता है. भाग्यशाली लोग घरेलू सहायिका के रूप में ‘कोठी’ में पहुंचते हैं. बाकियों को शादी के लिए या वेश्यालय में बेच दिया जाता है, जहां उन्हें हर तरह का कभी न खत्म होने वाला शोषण और प्रताड़ना झेलना पड़ता है” ट्रैफिकिंग के कई रूप हैं.
घरेलू काम के लिए ट्रैफिकिंग :
घरेलू काम के लिए अक्सर युवा लड़कियों की तस्करी की जाती है. इसके लिए संताल परगना की लड़कियों को काम दिलाने की लालच में ले जाया जाता है. इसमें बच्ची के परिजनों की भी सहभागिता रहती है. ट्रैफिकिंग के लिए 10-16 वर्ष के बीच की लड़कियों, विशेषकर बिना शिक्षा वाली, को टारगेट किया जाता है. घरेलु कार्य में यह बात सामने आया है कि लड़कियों को कुछ मामलों में भावनात्मक, शारीरिक और वित्तीय शोषण का सामना करना पड़ता है.
लेबर ट्रैफिकिंग :
संताल परगना से लेबर ट्रैफिकिंग बहुत होता है. बारिश का समय बीतने के बाद देवघर हो या गोड्डा हो, दुमका हो या जामताड़ा, साहिबगंज हो या पाकुड़ सभी जिले से मजदूरों को मेठ काम के लिए बाहर ले जाते हैं. दूसरे राज्यों में खेतों में फसलों की कटाई के लिए अधिकांश मजदूरों को ले जाया जाता है. उनमें से कई लोग ईंट भट्टों में काम करने जाते हैं और उन्हें खराब कामकाजी और रहने की स्थिति का सामना करना पड़ता है.
काम के अंत में मिलते हैं 20 से 40 हजार रुपये :
मजदूर जो ट्रैफिकिंग के शिकार होते हैं उन्हें दैनिक आधार पर भुगतान नहीं किया जाता है. उन्हें काम के अंत में 20 से 40 हजार ही मिलते हैं. इस दौरान महिला लेबर अक्सर यौन उत्पीड़न की शिकार भी होती हैं. इनलोगों को एजेंट के माघ्यम से ले जाया जाता है. श्रमिकों की ट्रैफिकिंग दुमका से जम्मू होते हुए लेह, लद्दाख तक होती है. इसके अलावा यहां के मजदूर हेमांग, प्रतापपुर, खालसी और पलामू से डाल्टनगंज, जबलपुर होते हुए दिल्ली, पंजाब, हरियाणा, चेन्नई, गुजरात, केरल, ओडिशा, छत्तीसगढ़ और पश्चिम बंगाल तक ले जाये जाते हैं.
बाल श्रम के लिए ट्रैफिकिंग:
परिवारों के मौसमी प्रवास के कारण बच्चे अक्सर स्कूल छोड़ देते हैं. ऐसे बच्चों को अक्सर फ़ैक्टरियों में काम करने के लिए अच्छा वेतन देने का लालच देकर ले जाया जाता है. 14 से 17 वर्ष की आयु के कई बच्चे अनुसूचित जाति के हैं. (एससी) (भुइया, विश्वकर्मा, चमार), एसटी (परहैया और ओरांव), और मुस्लिम पृष्ठभूमि को काम के लिए टारगेट किया जाता है. इन्हें खदानों, ईंट भट्टों और होटलों में भेजा जाता है. परिवारों को आमतौर पर प्रति बच्चा 2,000 रुपये का भुगतान किया जाता है
एक संस्था के निदेशक के अनुसार शिक्षा के नाम पर बच्चों को उनके माता-पिता से दूर ले जाना एक बड़ी समस्या है. एक लिखित दस्तावेज़ पर उनके अंगूठे का निशान लेकर उनके माता-पिता की सहमति से इन्हें बाहर ले जाया जाता है. कई मामलों में नियोक्ता गांव के रिश्तेदार या परिचित लोग ही होते हैं जिन्हें शहरों में अपने बच्चों की देखभाल के लिए किसी की आवश्यकता होती है. बाल श्रम के लिए ट्रैफिकिंग दुमका से जसीडीह और कोलकाता से चेन्नई और पलामू तक होती है. डाल्टनगंज, जुरू से होते हुए दिल्ली, शिमला, पंजाब, हरियाणा, मैसूर (कर्नाटक), राजस्थान, उत्तर प्रदेश और गुजरात तक बच्चे ले जाये जाते हैं.
दुल्हन की ट्रैफिकिंग
कुछ राज्यों में लिंगानुपात कम होने के कारण लड़कों को दुल्हन ढूंढने में कठिनाई होती है. इसलिए, वे महिलाओं की तलाश करते हैं. गरीब परिवारों से जिनके परिवार को कुछ भुगतान करने के बाद शादी के लिए तैयार करते हैं. शादी के बाद वे लड़की लेकर चले जाते हैं. स्थानीय एजेंटों के माध्यम से शादियां तय होती हैं. दूल्हे के परिवार एजेंटों से संपर्क करते हैं जो उनके लिए उपयुक्त दुल्हन की तलाश करते हैं. परिवार एससी, एसटी और मुस्लिम पृष्ठभूमि से संबंधित 14 से 17 वर्ष की आयु वर्ग की नाबालिग लड़कियां होती हैं.
ऐसे परिवार जिनके माता-पिता शराब पर निर्भर हैं, एकल माता-पिता वाले परिवार और ऐसे परिवार जहां घरेलू हिंसा होती है, इसे ही टारगेट करते हैं.लड़कियों की शादी कर उन्हें हरियाणा, पंजाब और राजस्थान जैसे राज्यों में भेज दिया जाता है. दुमका से लड़कियों को बरेली, कानपुर, मेरठ, हरियाणा और दिल्ली जैसी जगहों पर ले जाया जाता है. यौन ट्रैफिकिंग
यौन तस्करी के लिए नाबालिग लड़कियों को निशाना बनाया जाता है और उन्हें अक्सर घरेलू स्थानों पर रखा जाता है. कभी-कभी लड़कियों का यौन शोषण और दुर्व्यवहार होता है. काम के एवज में भुगतान नहीं मिलता है. जानकारी के अनुसार लड़कियों को काठीकुंड, गोपीकांदर, शिकारीपर और जामा से दुमका और जसीडीह होते हुए दिल्ली और मुंबई आदि इलाके में ले जाया जाता है.
जितनी भी महिलाएं या बच्चे रेस्क्यू किये गये हैं, लापता होने की सूचना पर हुए हैं. एक रिपोर्ट में पाया गया कि तस्करी से बचाए गए लोगों को पहले लापता के रूप में दर्ज किया गया था. एससीआरबी अपराध आंकड़ों के अनुसार, कुल मिलाकर, चार वर्षों में 283 महिलाओं और 111 पुरुषों को बचाया गया. 2017 में सर्वेक्षण के समय लगभग 158 प्रवासी अपने परिवार के संपर्क में नहीं थे. —
बच्चे को गोद लेना :
एचएच सर्वेक्षण के माध्यम से यह पता चला है कि बच्चों को अवैध रूप से गोद लेने की प्रथा बड़े पैमाने पर है, जो इस ओर इशारा करती है कि ट्रैफिकिंग के शिकार बच्चे हो रहे हैं. सर्वेक्षण में शामिल 3,362 एचएच में से 199 ने बताया कि ऐसा हुआ था. उनके गांव में बच्चे को गोद लेने का एक उदाहरण रहा है. ऐसे एक-चौथाई मामलों में, बच्चे को आपसी सहमति से गोद लिया गया था. इसकी तुलना में लड़के को गोद लेने के अधिक मामले (9.6 प्रतिशत) दर्ज किए गए, कन्या शिशु गोद लेने के लिए (3.5 प्रतिशत) हैं. इसमें अस्पतालों में कन्या शिशुओं का परित्याग अधिक था. दुमका जिले में गोद लेने वाली एजेंसियों की अनुपस्थिति के कारण, पैसे के बदले अस्पताल इन शिशुओं को सौंप देते हैं. बिना किसी कानूनी प्रक्रिया के निःसंतान दंपत्तियों को महज 500 रुपये में गोद लेने की बात चिंताजनक है.