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अनूठा व खास है देवघर में सामाजिक रस्म और रिवाज

रीति रिवाज सामाजिक मान्यता प्राप्त सिक्के हैं, यंत्र हैं पद्धतियां हैं, ईश्वर से अप्रत्यक्ष संवाद की, स्वस्थ मानव जीवन व्यापन के सूत्रों की, सभ्यता और उनकी पहचान को अक्षुण्ण रखने की और जीवन यापन के हरे पहलुओं के प्रतिनिधि कर्मकांडों की

By Prabhat Khabar News Desk | August 5, 2023 12:45 PM

रीति-रिवाज हमारी सामाजिक सभ्यता के नित्य, साप्ताहिक, मासिक और वार्षिक नित्य कर्मों की स्वीकृत परंपरागत शृंखला है जो पीढ़ी दर पीढ़ी व्यवहारिक रूप में हस्तांतरित और संशोधित की जाती रही है. जीवन के विभिन्न फलकों और अध्यायों के लिए अलग-अलग समय में, मौसमों में अलग-अलग सामाजिक, धार्मिक और आर्थिक कृत्य जरिया है ईश्वर के प्रति अपनी कृतज्ञता दर्शाने का. इनके पीछे कुछ विज्ञान है, कुछ आस्था है, कुछ शिष्टाचार है और सबसे बढ़कर एक सामाजिक सभ्यता की दैनंदिनी का दर्पण भी है.

रीति रिवाज सामाजिक मान्यता प्राप्त सिक्के हैं, यंत्र हैं पद्धतियां हैं, ईश्वर से अप्रत्यक्ष संवाद की, स्वस्थ मानव जीवन व्यापन के सूत्रों की, सभ्यता और उनकी पहचान को अक्षुण्ण रखने की और जीवन यापन के हरे पहलुओं के प्रतिनिधि कर्मकांडों की. किसी समाज विशेष की कार्मिक पहचान उनके साल पर्यन्त किये जाने वाले विभिन्न आदतों, अनुष्ठानों और कर्मकांडों की, चाहे वह समाज के किसी भी मंच पर संचालित होते हों, से ही होती है.

समय अंतराल ने रीति-रिवाजों को भी प्रभावित और संशोधित किया है. देवघर नगरी की पहचान बाबा बैजनाथ ज्योतिर्लिंग से है और इस देवभूमि की सामाजिक गतिविधियों में हर बार, हर वक्त ईश्वर की भागीदारी सुनिश्चित कर दैव कृतज्ञता का सृजन किया जाता है. रीति-रिवाज की जुगलबंदी इतिहास के साथ रही है जन्म से मृत्यु तक मानव जीवन काल के घटनाक्रमों के लिए रीति-रिवाजों की अलग-अलग अभिव्यक्तियां हैं.

रीति रिवाज सांसों के शुरू होते ही सहचर हो जाते हैं. जन्म लेने से लेकर पारलौकिक यात्रा तक इतिहास और मानव सभ्यता ने रीति-रिवाजों को स्थानीय, क्षेत्रीय और राष्ट्रीय स्तर पर परिभाषित कर रखा है. यह कठोर और लचीले दोनों रूपों में वजूद में हैं खासकर आपके आधुनिक समाज में रीति रिवाज बहुत हद तक औपचारिक और सीमित हो गये है. जननाशौच या जन्म कालिक अशुद्धि से रीति-रिवाजों की शुरुआत हो जाती है.

क्योंकि देवघर एक अनोखा समाज है खासकर फिर पुरोहित समाज. यह एक संपूर्ण सामाजिक पारिस्थितिकी है जिसमें आज भी अंतर विवाह (एंडोगैमी) का प्रतिशत अधिकतम है क्योंकि मूल और गोत्रों की विविधता एक ही स्थान में उपलब्ध है. जननाशौच में जन्म के बारे में अमूमन गोपनीयता बरती जाती है ताकि अन्य लोगों के पूजा-पाठ और अन्य धार्मिक कृत्य बाधित न हो. समयानुसार फिर अन्नप्राशन, मुंडन, उपनयन, शादी विवाह.

बसंत पंचमी में विद्यारंभ के समय स्लेट पेंसिल से मंदिर में वर्ण आरंभ करना जिसे स्थानीय भाषा में ‘खड़ी पढना’ कहते हैं, इसे यहां की शैक्षणिक विशेषता कहिए. सामाजिक रीति-रिवाजों का तो जखीरा है यहां. सामाजिक कृत्यों में आपको धर्म कहीं-न-कहीं प्रतिदिन प्रतिबिंबित होता दिखता है और साथ ही साथ ईश्वर की उपस्थिति का आभास भी. उपनयन संस्कार कई चरणों में संपन्न होता है

फटकाझारी, सगनौती, मंडप पूजन, मातृका पूजा और फिर उपनयन संस्कार. नव ब्राह्मण बरुआ को चार दिनों तक संयमित आहार ग्रहण और अन्य नियमों का अनुपालन करना पड़ता है और ‘चौठारी’ के साथ ही यह कर्मकांड संपन्न माना जाता है. सारी दुनिया की तरह यहां भी सामाजिक यज्ञ का आयतन, बजट और चकाचौंध सभी बेतरतीब हुए हैं. शादी ब्याह में भी कई दिनों का आयोजन होता है. इसमें पहले दोनों पक्ष मंदिर में अपने परिजनों की उपस्थिति में प्रस्तावित शादी को पंजीकृत कराते हैं और शुरुआत यहीं से होती है.

नये रिश्ते की स्वीकृति को स्थानीय लोग ‘पान अबीर’ या ‘सही पड़ना’ के नाम से जानते हैं और यह मौखिक पंजीकरण के समतुल्य है. शादी के बाद समधी सम्मान जिसे ‘मर्याद’ कहते हैं. विवाह समारोह आठ दिनों तक चलता रहता है. अंतिम दिन ‘दशहरे’ से मंदिर के दरवाजे पर किए गये दांपत्य अनुष्ठानों से इसकी समाप्ति मानी जाती है. साल भर हर पर्व त्योहारों में उपहारों खाद्य सामग्रियों का आदान-प्रदान चलता रहता है जिसे ‘अठपवनियां’ कहते हैं.

संताल परगना के कई इलाके तेजी से विकास की ओर अग्रसर हैं. संताल परगना अब देश-दुनिया के सामने अपनी पहचान बनाने को बेताब है. एयरपोर्ट, एम्स, पावर प्लांट सहित मेडिकल कॉलेज व अन्य नवनिर्मित संसाधान नये संताल परगना के दृश्य को दिखाता है…. संताल परगना अब उभर रहा है.

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