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बैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग की उपासना पद्धिति, शिव पूजन भोग के साथ देता है मोक्ष

केवल भोग की कामना करनेवाले भक्तों को चाहिए कि वह शिव की पूजा करें. ऐसा करने पर उसे भोग तो मिलेगा ही, साथ ही मोक्ष भी प्राप्त हो जायेगा. बड़ा से बड़ा तप, सर्वस्व दक्षिणा वाले यज्ञ यहां ये सभी शिवपूजन के कोटि अंश की भी समता नहीं कर सकते हैं.

Baba Baidyanath Dham: शैवमत के अनुसार,अन्य देवों का यजन-पूजन प्राणियों को केवल भोग ही प्रदान करता है, किन्तु भगवान शिव का पूजन भोग के साथ-साथ मोक्षदायक भी है. मोक्षदानरूप कार्य भगवान शिव के अतिरिक्त अन्य कोई देव नहीं करता. अतः केवल भोग की कामना करनेवाले भक्तों को चाहिए कि वह शिव की पूजा करें. ऐसा करने पर उसे भोग तो मिलेगा ही, साथ ही मोक्ष भी प्राप्त हो जायेगा. बड़ा से बड़ा तप, सर्वस्व दक्षिणा वाले यज्ञ यहां ये सभी शिवपूजन के कोटि अंश की भी समता नहीं कर सकते हैं. दुर्लभ मनुष्य जन्म को प्राप्त करके जो प्राणी शिव की पूजा करते हैं, उनका जन्म सफल है और वे ही नरोत्तम कृतार्थ हैं. शीघ्रता से जीवन एवं यौवन बीत रहा है, शीघ्र ही व्याधि आ रही है, अतः भविष्य की आशा पर शिवपूजन को न टालकर शीघ्र ही उसमें संलग्न हो जाना चाहिए. वस्तुत: त्रिलोकी में शिवार्चन के तुल्य अन्य धर्म नहीं है. अतः अपने जीवन को सफल बनाने की इच्छा वाले प्राणी को चाहिए कि वह सम्पूर्ण धर्मों का परित्याग कर भगवान शिव की पूजा, वंदना एवं शरण का आश्रय ले .

भगवान शिव की पूजा लिंग एवं प्रतिमा दोनों में की जाती है. पुराण एवं लोक में शिव की प्रतिमा की अपेक्षा लिंगार्चन की महत्ता विशेष रूप से दृष्टिगोचर होती है. शिवलिंग को शिवमूर्ति की अपेक्षा प्राथमिकता प्रदान की गयी है. शिव महापुराण के आद्योपान्त अध्ययन से यह बात बहुत स्पष्ट हो जाती है कि अन्य लिंगों की अपेक्षा ज्योतिर्लिंग सर्वाधिक प्रसिद्ध एवं महत्वशाली है. शिवोपासना शब्द का अर्थ है शिव के समीप बैठना उपसमीपे आसनम् उपासनम् स्त्रीलिंग में उपासना, अर्थात् अपने आपको शिव में समर्पित कर देना उपासना का चरम स्वरूप है. उपासक और उपासना दोनों के लीन हो जाने पर केवल उपास्य स्वरूप ही रह जाता.

धातृध्याने परित्यज्य क्रमाद् ध्येयैकगोचरः

यह अभियुक्तों की उक्ति भी इसी बात को कहती है किसी साधारण बड़े आदमी के पास कोई बैठता है तो अपने को पूर्ण सावधान देहेन्द्रियमनोबुद्धि-चित्त- अहंकार को स्वस्थ कर बैठता है. फिर अपने परमाराध्य इष्टदेव के सामने बैठने के लिए तो अपने-आपको उसके अनुरूप बनाना चाहिए. इसीलिए तो कहा गया है कि “देवोभूत्वा यजेद् देवं ना देवो देवमर्चयेत्.” इसका आशय यह है कि अपने आपको भगवदुपासना के योग्य बनाना. स्थूल सूक्ष्म-कारण शरीर का लक्ष्य कर दिव्य देह उत्पन्न करके ही उपासना की जा सकती है.

पंचोपचार, षोड्शोपचार, राजोपचार पूजा यह भगवान की मध्यम कोटि की उपासना है. अपने मन को मन्त्रमय वृत्ति के द्वारा उपास्य के साथ अभेद-बुद्धि करना यह पर उपासना है और समस्त संसार अनन्तकोटि ब्रह्माण्ड को उपास्य तत्व में लीन कर केवल तद्नुरूप ही सर्वत्र देखना परापरा भगवान की उपासना है. शिव तत्व अनन्त है और उनकी उपासना भी अनन्त है. देवाधिदेव भगवान शिवजी का महत्व अपूर्व है. इसलिए भारतीय वाङ्मय में शिव की महत्ता सर्वत्र वर्णित है.

वैदिक सिद्धांत के अनुसार सृष्टि का मूलतत्व अनेक नहीं, किन्तु एक ही माना गया है. ऋग्वेद में सृष्टि-उत्पत्ति से पूर्व की बात कही गयी है, जो इस प्रकार है ‘नासदासीनो सदासीत् तदानी नासीद्राजो नो व्योम परो यत्’ इस मंत्र में स्पष्ट कहा गया है कि सृष्टि-उत्पत्ति से पूर्व यह परिदृश्यमान जड़-चेतनात्मक जगत नहीं था, कुछ भी नहीं था, एकमात्र अद्वितीय ब्रह्म ही विद्यमान था ‘एकमेवाद्वितीयं ब्रह्म’ इसी ब्रह्मतत्व से अखिल ब्रह्माण्ड का सृजन हुआ. यह बात अन्य श्रुति में भी कही गयी है, यथा- यतो वा इमानि भूतानि जायन्ते. जन्माद्यस्य यत: (ब्रह्मसूत्र 1/1/5) अर्थात् ये सब प्रत्यक्ष दीखनेवाले प्राणिजगत् जिससे उत्पन्न होते हैं, उत्पन्न होकर श्रुति में भी कही गयी है, यथा यतो वा इमानि भूतानि जायन्ते (तै.उ.3/1) जन्माद्यस्य यतः जिसके सहारे जीवित रहते हैं, अन्त में जिसमें प्रवेश करते हैं वही ब्रह्म है. शिवपुराण धर्म संहिता (2/15-17) में भी कहा गया है

इदं दृश्य या नासीत् सदसदात्मकं च यत्।

तदा ब्रह्ममयं तेजो व्याप्तिरूपं च सततम्।।

न स्थूलं न च सूक्ष्मं च शीतं नोष्णं तु पुत्रक।

आद्यन्तरहितं दिव्यं सत्यं ज्ञानमनन्तकम्।।

योगिनोन्तरदृष्टया हि योद्धायन्ति निरन्तरम्।

तद्स्थं सकलं ह्यासींजान विज्ञानदं महत्।।

यह संपूर्ण परिदृश्यमान जगत जब उत्पन्न नहीं हुआ था, उस काल में सत्-असत् कुछ भी नहीं था, प्रत्युत अव्यक्त रूप में ही था. उस समय निरंतर व्याप्ति रूप ब्रह्ममय तेज उत्पन्न हुआ अर्थात् प्रकट हुआ. ब्रह्मा जी अपने मानस पुत्र नारद से कहते हैं कि हे पुत्र वह ब्रह्म तेज स्थूल, सूक्ष्म, शीत और उष्ण आदि कुछ नहीं था. वह सत्य रूप में ज्ञात रूप ही था और अनन्त था. समाधिनिष्ठ योगीगण समाधि में स्थित होकर योगदृष्टि से यानि दिव्यदृष्टि के द्वारा उस तेज-र-तच्छुभ्रं ज्योतिषां ज्योतिः का नित्य ही अवलोकन अर्थात् साक्षात्कार किया करते हैं. वही ज्ञान-विज्ञान का देनेवाला ब्रह्मतेज प्रकट हुआ. उस ज्योतिरूप ब्रह्मतत्व से इच्छा शक्ति रूपा ब्रह्मशक्ति माया या प्रकृति अव्यक्तावस्था से व्यक्त भाव को प्राप्त हुई वह माया ब्रह्म ही है, वह एक निर्विशेष है. विशिष्ट चैतन्य स्वरूप ब्रह्म ही ईश्वर- संज्ञक हुआ. ब्रह्म ही माया विशिष्ट होकर सविशेष अर्थात् ईश्वर-संज्ञक हो जाता है. वह माया विशिष्ट ईश्वर ही शिव और शक्ति के रूप में विद्यमान है. वाह्यरूप में भी जो हम शिव का पूजन-अर्चनादि करते हैं, उस शिवलिंग को भी वस्तुतः शिव-शक्ति के ही लिंग (चिह्न) के रूप में पूजते हैं. इसलिए शिवपुराण विशेश्वर संहिता में कहा गया है “शिवशक्त्योश्च चिह्नस्य मेलनं लिंगमुच्यते” अर्थात् ईश्वर और माया का मेल ही शिवलिंग के नाम से जाना जाता है उसे ही उपासना के लिए परमेश्वर का प्रतीक माना जाता है और शिवालयों में पूजन किया जाता है.

साभार, श्रीश्री वैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग वांमय

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