सिरिल हंस
मुंडारी भाषा परिवार के अंतर्गत आने वाली भाषाओं के कई रोचक तथ्य मौजूद हैं. झारखंड तथा पड़ोसी राज्यों में वृहत संख्या में पाये जाने वाले मुंडारी भाषाभाषी हैं. प्रसिद्ध मानवशास्त्री एवं वकील शरत चंद्र रॉय ने ‘दि मुंडाज एंड देयर कंट्री’ नामक पुस्तक (1912) लिखी. अत: मुंडाओं के भाषा संबंधी अनेक पहलू प्रकाश में आये. इससे पहले भी एक समुदाय के रूप में मुंडाओं की चर्चा वैदिक काल में मिलेती है. महाभारत में कौरवों की सेना में मुंडाओं का नाम आता है. ‘मुण्डानेतान हनिष्यामि दानवानिव वासव:’ (महाभारत के भीष्म पर्व 117, 23).
इन मूलनिवासियों को संस्कृत में मुंडा (अगुवा/नेता) कहा गया, परंतु वे स्वयं को ‘होड़ो’ (मानव) कहते हैं. उनके सजातीय संताल खुद को ‘होड़’ और सिंहभूम के ‘हो’ लोग स्वयं को ‘हो’ बुलाते हैं. तीनों की भाषा चंद विभिन्नताओं के साथ लगभग एक हैं. ये एक ही भाषा परिवार के हैं. मुगलों के ‘आईन-ए-अकबरी’ में और अन्य साहित्य में इस भू-भाग को ‘खुखरा’ और ‘झारखंड’ नाम दिया गया, परंतु मुंडाओं की भाषा को लेकर उनके साहित्य में कोई रुचि नहीं पायी जाती है.
वर्ष 1971 की जनगणना में छोटानागपुर में मुंडाओं की जनसंख्या अविभाजित बिहार के रांची जिले में 7,23,166 थी. वर्ष 1981 में यह आबादी 8,56,000 रिकाॅर्ड की गयी. उसी प्रकार उनकी सजातीय संतालों की जनसंख्या संताल परगना में वर्ष 1971 में 18,01,304 और सिंहभूम जिले में उसी श्रेणी के ‘हो’ लोगों की संख्या 5,05,172 थी.
मुंडा भाषा बोलने वाले ऑस्ट्रोएशियाटिक यानी आग्नेय भाषाई श्रेणी में आते हैं. भाषा विज्ञान समझ के आधार पर यह सर्वमान्य है. ऑस्ट्रोएशियाटिक भी दो वर्ग में बंटा है, ऑस्ट्रोनेशियन तथा ऑस्ट्रोएशियाटिक. इसी क्रम में ऑस्ट्रोएशियाटिक भाषा श्रेणी पुन: दो भागों में विभक्त है- मोंञ–ख्मेर और मुंडा (होड़ो जगर). मोञ–ख्मेर के अंतर्गत गारो, खासी, निकोबारी हैं. मुंडा (होड़ो जगर) के तहत मुंडारी, संताली, हो, खड़िया, भूमिज, असुर, बिरहोर, बिरजिया, कोरवा, कोड़कू और जुआंग् आते हैं.
आयरलैंड के सर जॉर्ज ग्रीयरसन (1851–1941) ने बंगाल और बिहार में कार्यरत रहते भाषा और भारतीय लोककथाओं का गहन अध्ययन किया. उन्होंने लिंग्विस्टिक सर्वे ऑफ इंडिया में लिखा कि मुंडारी, बिरहोर, तूरी, असुरी को मुंडा भाषा परिवार के खेरवार शाखा में रखा जा सकता है. रांची राजपत्र (गजेट 1970) में दर्ज है कि मुंडा जाति की 94 प्रतिशत आबादी मुंडारी भाषा बोलती है. साथ ही मुंडा गांवों में बसने वाले चंद श्रेणी के कारीगर शिल्पी भी मुंडा भाषा बोलते हैं, जैसे पान और लोहरा.
उरांव समुदाय पश्चिमी दिशा से छोटानागपुर में आये. मुंडाओं ने उनका विधिवत स्वागत किया. कुड़ुख़ भाषाभाषी और राजमहल क्षेत्र के पहाड़िया (माल्तो) द्रविड़ पृष्ठभूमि से आते हैं, परंतु वे मुंडा, संताल और खड़िया लोगों के साथ घुल-मिल गये. रांची शहर के बीस-पचीस किलोमीटर की परिधि में रहने वाले उरांव एक प्रकार की मुंडारी बोलते हैं, जिसे होड़ो-लिया जगर (केरअ: मुंडा) कहते हैं. इसे रांची विश्वविद्यालय क्षेत्रीय विभाग के डॉ बीपी केसरी (1933-2016) ने गौर किया और अपने शोध लेखों में दर्ज किया है.
मुंडा, संताल, हो भाषा में भौगोलिक दूरी के कारण थोड़ी भिन्नता आ गयी, परंतु मूल स्वरूप एक है. लिपि का आविष्कार नहीं हुआ. सभी परंपराएं अलिखित या मौखिक रह गयीं. मुंडा गीत, नृत्य, लोक कथा और धार्मिक अनुष्ठानों में उनका इतिहास कैद है. वे दिवंगत की अंतिम क्रिया में समाधि के ऊपर लंबे पत्थर को लगा देते हैं. अत: सदियों से पत्थलगड़ी (ससनदिरी) की परंपरा है. छोटानागपुर के तत्कालीन आयुक्त इटी डाल्टन (1857–1875) ने 1870 में ‘एथ्नोलॉजी ऑफ बंगाल’ में लिखा कि इन पत्थरों में मुंडाओं का अलिखित इतिहास दर्ज है.
मुंडा भाषा श्रेणी की चार मुख्य शाखाएं : (क) हसादअ: – रांची के पूर्वी क्षेत्र में बोली जाने वाली भाषा, जिसे विशुद्ध मुंडारी की मान्यता है, (ख) नागुरि- ऊपरी या रांची के पश्चिम में बोली जाती है, (ग) केरअ- होड़ोलिया जगर और (घ) तमाड़िया, जो छोटानागपुर के निचले हिस्से (लतर दिसुम) या रांची के पूर्वी इलाके में बोली जाती है.
महाकाव्यों में मुंडाओं की चर्चा यदा-कदा है. तद्नुसार इनमें वर्ण व्यवस्था नहीं है. सभी भाषाभाषी एक-दूसरे से कुछ शब्द लेते हैं और उन्हें देते हैं. साथ ही अपनी भाषा को समृद्ध बनाते हैं. यूरोप के एंग्लो सैक्सन के साथ ऐसा ही हुआ है, जिससे आधुनिक अंग्रेजी विकसित हुई. बहरहाल, उन्नीसवीं सदी में मुंडाओं की भाषा को लेकर विद्वानों के लेख एवं शोध आने लगे. जर्मन विद्वान फ्रीडरिख मैक्सम्यूलर (1823-1900) ने हिंदू धर्मशास्त्रों का गहन अध्ययन किया. संस्कृत पाठ और रचनाओं का 50 खंड में अंग्रेजी अनुवाद ( दि सेक्रेड बुक्स ऑफ दि इस्ट) उनकी देखरेख में हुआ.मुंडारी व अन्य आदिवासी भाषाओं पर भी काम शुरू हुए. यहां मात्र चंद विदेशी विद्वानों का जिक्र है, जो मुंडारी भाषा शोध में अग्रणी रहे हैं. बाद में अन्य स्थानीय एवं स्वदेशी विद्वानों की चर्चा लाजिमी है.
जर्मन विद्वान जेबी हॉफमेन (1857-1928) ने पहली बार मुंडारी का 16 खंड में विशाल विश्वकोश (इनसाइक्लोपीडिया मुंडारिका) बनाया. थोड़े भाग को एक बेल्जियन पी पोनेट ने पूरा किया. हॉफमेन ने मुंडारी व्याकरण भी लिखा, ‘ए मुंडारी ग्रामर विद एक्सरसाइजेज (1905–1909)’, मुंडारी कविता, संगीत एवं नृत्य (मुंडारी पोएट्री, म्यूजिक एंड डांस वर्ष 1907 में प्रकाशित हुई. उन्होंने ही छोटानागपुर काश्तकारी अधिनियम (1908) का ड्राफ्ट लिखा था. जेडी स्मेट लिखित ‘रूडिमेंट्स ऑफ ए मुंडारी ग्रामर’ (मुंडारी व्याकरण के मूल तत्व) 1891 में कलकत्ता से छपी.
वहीं, अल्फ्रेड नोतरोत ने जर्मन भाषा में ‘ग्रामेटिक डेर कोल एसपरच्’ लिखा (बर्लिन 1904). उसे अंग्रेजी में ‘दि ग्रामर ऑफ कोल लैंग्वेज’ कह सकते हैं. आधुनिक काल में स्थानीय स्वदेशी विद्वानों का दौर आता है. लंबी सूची है. इसे हम डॉ राम दयाल मुंडा द्वारा मिनेसोटा विश्वविद्यालय के दक्षिण-एशियाई अध्ययन विभाग, मिनियापॉलिस, अमेरिका में शिक्षा एवं अध्यापन कार्य हेतु प्रवास के दौरान मुंडारी भाषा के ऊपर वैज्ञानिक शोध की अवधि एवं नयी कड़ी के रूप में देख सकते हैं.
(रिटायर्ड प्राध्यापक, गोस्सनर धर्म कॉलेज, रांची)