शोषित-पीड़ितों की आवाज थे गुरुदास चटर्जी
निरसाः गुरुदास चटर्जी की शहादत के 14 वर्ष बीत चुके हैं. इन वर्षो में दबे-कुचले, शोषित-पीड़ितों के दिल में यह नाम आज भी पूर्व की तरह ही बसता है. तभी तो हजारों की संख्या में लोग चिलचिलाती धूप में भी देवली पहुंच कर अपने नेता को श्रद्धा सुमन अर्पित करते हुए प्रतिक्रियाशील शक्ति के विरुद्ध […]
निरसाः गुरुदास चटर्जी की शहादत के 14 वर्ष बीत चुके हैं. इन वर्षो में दबे-कुचले, शोषित-पीड़ितों के दिल में यह नाम आज भी पूर्व की तरह ही बसता है. तभी तो हजारों की संख्या में लोग चिलचिलाती धूप में भी देवली पहुंच कर अपने नेता को श्रद्धा सुमन अर्पित करते हुए प्रतिक्रियाशील शक्ति के विरुद्ध संघर्ष जारी रखने का हुंकार भरते हैं. कोयलांचल के राजनीतिक क्षितिज पर सैकड़ों नेता उभरे और लुप्त हो गये. कुछ नेता ऐसे हैं जिन्हें लोग शायद कभी भूल नहीं पाये. उनमें एक नाम गुरुदास दा का भी है. ऐसा नहीं है कि गुरुदास दा प्रखर वामपंथी विचारधारा के नेता या फिर राज्य व केंद्र सरकार में मंत्री पद लेकर अपना रुतबा दिखाये.
वे तो बस सभी से सहजता से घुल-मिल जाने वाले एक साधारण स्वभाव के असाधारण इच्छाशक्ति वाले व्यक्ति थे. जो कोई उन्हें पुकारता, वे उसके पास पहुंच जाते थे. चाहे वह विरोधी दल का ही क्यों न हो. उनके इसी गुण के कारण निरसा ही नहीं धनबाद जिला के सुदूर गांव के लोग भी उन पर विश्वास करते थे. यही विश्वास उनके साथ आम जनता के बीच रिश्तों की जमा-पूंजी थी.
वर्ष 1990 के बाद लगातार अपने प्रतिद्वंद्वियों को शिकस्त देने में सफल रहे और निरसा की सीमा-रेखा से निकल कर जिला तथा राज्य की राजनीति में अपनी अलग पहचान बनाने में कायम हुए. उनके इस पहचान के कारण प्रतिक्रियाशील शक्तियों की बौखलाहट बढ़ने लगी. उन्हें लगने लगा कि गुरुदास के रहते उनके मंसूबे कभी पूरे नहीं होंगे. इसलिए उन्होंने निहत्थे गुरुदास दा की सुनसान सड़क पर हत्या कर दी. क्रांतिवीरों की सच्ची श्रद्धांजलि क्रांति को आगे बढ़ाकर होती है. गुरुदास दा को सच्ची श्रद्धांजलि उनके अधूरे कार्यो को पूरा कर ही दी जा सकती है.