झरिया राजबाड़ी : तामझाम घटा, परंपरा बरकरार

456 वर्षों से यहां हो रही दुर्गा पूजा. कभी कोयलांचल की शान थी, लगते थे सर्कस व थियेटर वक्त के साथ बहुत कुछ बदल गया संजीव झा धनबाद : दुर्गा पूजा आते ही कोयलांचलवासियों के जेहन में राजबाड़ी दुर्गा पूजा झरिया की याद आने लगती है. दुर्गोत्सव के दौरान कभी यहां श्रद्धालुओं का सैलाब उमड़ता […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | October 14, 2018 10:03 AM
456 वर्षों से यहां हो रही दुर्गा पूजा. कभी कोयलांचल की शान थी, लगते थे सर्कस व थियेटर
वक्त के साथ बहुत कुछ बदल गया
संजीव झा
धनबाद : दुर्गा पूजा आते ही कोयलांचलवासियों के जेहन में राजबाड़ी दुर्गा पूजा झरिया की याद आने लगती है. दुर्गोत्सव के दौरान कभी यहां श्रद्धालुओं का सैलाब उमड़ता था.
अब न मेला लगता है और न वैसी भीड़ उमड़ती है. राजबाड़ी के दुर्गा स्थान में परंपरागत पूजा होती है. दो दशक पूर्व तक दुर्गा पूजा में आकर्षण का केंद्र झरिया का राजबाड़ी मेला हुआ करता था. यहां मेला में सर्कस, चिड़ियाघर, मीना बाजार के साथ बच्चों के लिए झूले, मिठाई, चूड़ी की दर्जनों दुकानें लगती थी.
मेला देखने दूर-दराज से लोग झरिया आते थे. पंचमी से ही मेला शुरू हो जाता था जो दशमी के बाद तक चलता था. नब्बे के दशक के बाद झरिया के उजड़ने के साथ ही मेला के प्रति आकर्षण घटने लगा. स्थानीय लोगों के अनुसार वर्ष 2002 से यहां मेला लगना लगभग बंद हो गया. जैसे -जैसे राज मैदान छोटा होता गया. यहां नाम मात्र का मेला लगने लगा. अब तो यहां मुहल्ले के पूजा जैसा मेला भी नहीं लगता.
पहले बलि देने को लगती थी कतार : पुराना राजागढ़ झरिया स्थित दुर्गा स्थान में झरिया राज परिवार की ओर से 456 वर्ष पूर्व पूजा का आयोजन शुरू किया गया था. यह परंपरा आज भी कायम है. इससे सटे राज मैदान में मेला लगता था, जो अब बंद हो गया है. दुर्गा मंडप में बलि देने के लिए पहले लोगों की लंबी कतार लगती थी. महानवमी के दिन छह से सात हजार बकराें की बलि दी जाती थी. अब यहां चार-पांच भक्त ही बलि देने आते हैं.
झरिया में पहला विसर्जन यहीं होता : झरिया में शारदीय नवरात्र के अवसर पर दुर्गा पूजा के बाद सबसे पहला विसर्जन पुराना राजागढ़ मंडप में ही होता है. वह भी विजयदशमी के दिन. यहां कंधे पर ही मां की प्रतिमा लेकर भक्त विसर्जन करने जाते हैं. यहां विसर्जन के बाद झरिया के दूसरे मंडप व पंडालों की प्रतिमा विसर्जन की प्रक्रिया शुरू होती है.
तीन दिनों तक राजमहल में होती है अखंड पूजा
झरिया राजपरिवार की सबसे वरिष्ठ बहू सह महारानी सुजाता सिंह कहती हैं कि परिस्थितियां बदली हैं. पूजा में शाही खर्च घटे हैं. लेकिन, परंपरा से समझौता नहीं हुआ है. राजमहल स्थित शिरा घर में महासप्तमी से नवमी तक लगातार अखंड कीर्तन होता है. राज परिवार के सदस्य ही यहां खड़ग पूजा करते हैं. पुआ का भोग लगाया जाता है.
मान्यता है कि एक बार राजा के हाथ से तलवार नहीं छूट रही थी. तब उन्होंने मां को ध्यान कर बायें हाथ से पुआ बना कर मां की पूजा अर्चना की. इसके बाद राजा के हाथ से तलवार छूटी.
बग्घी पर निकलते थे राजा
राजशाही के समय दुर्गा पूजा के दौरान विजय दशमी को आम लोगों से मिलने झरिया के राजा बग्घी से निकलते थे. रास्ते में लोग राजा से मिलने के लिए घंटों इंतजार करते थे. अब यह परंपरा समाप्त हो चुकी है.

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