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चिता की राख में ढूंढ़ते हैं आजीविका

पेशा : अक्तूबर शुरू होते आगमन, अप्रैल बीतते-बीतते लौट जाते हैं घर नीरज अंबष्ट धनबाद : जिंदगी बनी रहे, इसके लिए बहुत जद्दोजहद करनी पड़ती है. जली हुई चिताओं में भी किसी की दो जून की रोटी छिपी हो सकती है, ऐसी कल्पना भी बड़ी मुश्किल है. मगर, पेट की भूख जो न कराये. पढ़िए […]

पेशा : अक्तूबर शुरू होते आगमन, अप्रैल बीतते-बीतते लौट जाते हैं घर

नीरज अंबष्ट

धनबाद : जिंदगी बनी रहे, इसके लिए बहुत जद्दोजहद करनी पड़ती है. जली हुई चिताओं में भी किसी की दो जून की रोटी छिपी हो सकती है, ऐसी कल्पना भी बड़ी मुश्किल है. मगर, पेट की भूख जो न कराये. पढ़िए एक रिपोर्ट.

दामोदर नद के किनारे स्थित मोहलबनी श्मशान घाट. जलायी गयी चिताओं के अवशेष मात्र बच गये हैं. कई महिलाएं उन अवशेषों में कुछ तलाश रही हैं. वहां उनकी मौजूदगी इस बात के संकेत दे रही हैं कि उन्हें न तो धार्मिक रीति-रिवाजों से मतलब है, न किसी बात का भय. वहां मौजूद अन्य लोगों को महिलाओं के कार्यकलाप से कोई सरोकार नहीं.

वैसे भी चिता की ठंडी राख दूसरों के मतलब की चीज नहीं रह जाती है, लेकिन जिस प्रकार ये महिलाएं अपने काम में तल्लीन थीं, उससे जाहिर होता था कि कुछ तो विशेष है. पूछने पर संजूबाई रोनकर टूटी-फूटी हिंदी में बोल उठी- “हम आदिवासी हैं. सोनझारी जाति से हैं. हमारी जाति का पुश्तैनी काम चिता का राख धोना और उसमें से सोना-चांदी का धातु निकालना है.” लोग श्मशान में शवों को जलाने के बाद छोड़ कर चले जाते हैं, लेकिन ये आदिवासी चिताओं की राख में दो जून की रोटी तलाशते हैं. हर दिन जितनी चिताओं की राख मिल जाये, उसे कढ़ाई में लेकर पानी में डालते हैं. उनकी किस्मत अच्छी रही तो गहनों के रूप में उनका निवाला दिखलायी पड़ जाता है. कई-कई दिन तक ये लोग रोटी की तलाश में राख छानते रह जाते हैं.ठंड में रहती है बहार : ठंड में इन लोगों की बहार रहती है. अक्तूबर से मार्च-अप्रैल के महीने तक मौत में वृद्धि दर्ज की जाती है.

इस दौरान इनका काम तेजी पर रहता है. वर्षा बाई रोनकर कहती है, “हम लोग नागपुर से अक्तूबर माह में झरिया आता है. अभी बनियाहीर दो नंबर में झोंपड़ी बना कर रह रहा है. हिंदू रिवाज के अनुसार शव के मुंह में अाभूषण व महिलाओं का पूरा शृंगार कर चिता पर लिटाया जाता है. बहुत सारा गहना महादलित निकाल लेता है. जो बचता है, वह गल कर चिता की राख में मिल जाता है. उसे हम लोग पानी में धो कर निकालता है.” ये लोग धातु सोनार की दुकान पर बेचते हैं.इन्हें अधिक कीमत नहीं मिलती है. जो माल बच जाता है, उसे अपने गांव ले जाते हैं. वहां ज्यादा कीमत पर बेचते हैं.

महाराष्ट्र की रहनेवाली है सोनझारी आदिवासी जाति : महाराष्ट्र के नागपुर स्थित छोटाताजबाग,सकरदरा के निकट के रहने वाली सोनझारी आदिवासी जाति का यह मूल पेशा है. जाति के एक दर्जन लोग पिछले तीन माह से मोहलबनी के दामोदर श्मशान घाट पर चिता की राख छानते फिर रहे हैं. इस कार्य में महिला-पुरुष लगे हुए हैं. जिस कड़ाही से राख छानते हैं, वह लकड़ी की होती है. राख नदी के पानी में छाना जाता है. पूरा राख तो बह जाता है, लेकिन सोना-चांदी जैसा धातु वहीं बैठ जाता है.

राख के देने पड़ते हैं पैसे : संजु बाई रोनकर ने बताया कि मोहलबनी घाट पर चिता की राख के लिए भी पैसा देना पड़ता है. एक चिता के एवज में डोम राजा को 30 से 50 रुपया देना पड़ता है. यदि पैसा नहीं देते हैं, तो उन्हें भगा दिया जाता है.देश भर में निकलती है टोली : लगभग छह माह तक आदिवासियों की टोली देश भर के घाटों पर घूमती रहती है.

संजु बाई के अनुसार, उसके गांव की आबादी लगभग 10 हजार है. सभी इसी काम में लगे हैं. गर्मी के मौसम में ये लोग महाराष्ट्र की सोना-चांदी की दुकानों पर काम करते हैं. वहां की नाली सफाई व झाड़ू लगाने का काम करते हैं. इस दौरान यदि सोना व जेवर मिल जाता है, तो उसके मालिक को दे देते हैं. उन लोगों पर दुकान मालिक का पूरा विश्वास रहता है.

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