सरकारी सैलरी और पेंशन को नकार देने वाले विरले नेता थे कॉमरेड एके राय, पढ़ें उनकी पूरी दास्तान
एके राय के ऊपर अपने पूरे राजनीतिक जीवन में किसी भी तरह के भ्रष्टाचार के आरोप नहीं लगे. उन्होंने अपना पूरा जीवन बेहद सादगी के साथ जिया.
AK Roy Death Anniversary|सियासत की स्याह में बेदागी संत. टखनों तक पहुंचते पायजामे और गोल गले के कुर्ते में पूरा जीवन गुजार दिया. राजनीति के संत. कोयलांचल की आन, बान और शान. जी हां, हम बात कर रहे हैं एके राय की. एके राय की पुण्यतिथि (15 जून) को संकल्प दिवस के रूप में मनाया जाता है.
एके राय की सादगी व ईमानदारी की सभी देते हैं मिसाल
धनबाद की राजनीति में अमिट छाप छोड़ने और अपनी सादगी व ईमानदारी से जनता के दिलों पर राज करने वाले एके राय की प्रशंसा विरोधी भी करते थे. आज के समय में ऐसी सादगी और ईमानदारी बहुत कम नेताओं में देखने को मिलती है. अक्सर राय दा को देखकर किसी को यकीन नहीं होता था की ये तीन-तीन बार विधायक व धनबाद के सांसद रह चुके हैं. आखिर किसे यकीन होगा कि किसी सांसद या विधायक के पास अपनी कोई जमीन-जायदाद नहीं है. उनके निधन तक उनका बैंक बैलेंस शून्य ही रहा. यह गर्व की बात है कि धनबाद के लोगों का प्रतिनिधित्व एक ऐसे शख्स ने वर्षों तक किया, जिसकी सादगी व ईमानदारी की मिसाल उनके विरोधी भी देते हैं.
पूरे देश के इकलौते सांसद, जिन्होंने नहीं ली पेंशन
तीन बार संसद में धनबाद का प्रतिनिधित्व करने वाले राय दा देश के इकलौते सांसद रहे, जिन्होंने जीवन भर पेंशन नहीं ली. ऐसा कहा जाता है कि जब लोकसभा में सांसदों के वेतन व पेंशन बढ़ाने का बिल आया, तो राय दा ने इसका जमकर विरोध किया. उन्होंने साफ कहा कि जनता हमें सेवा के लिए चुनती है. ऐसे में जनता की कमाई से क्यों वेतन व पेंशन दी जाए. उनके इस रुख के बाद संसद में उनका खूब विरोध हुआ. सिर्फ एक सांसद ने उनका साथ दिया. जब चुनाव में राय दा की हार हुई और पेंशन का ऑफर आया, तब भी उन्होंने पेंशन को ठुकरा दिया. उनके निधन तक उनकी पेंशन राष्ट्रपति कोष में जाती रही.
जेल से चुनाव लड़कर सांसद बने थे एके राय
एके राय ने बतौर केमिकल इंजीनियर कोयलांचल पर पूरा जीवन न्योछावर कर दिया. मजदूरों के लिए कई यादगार लड़ाइयां लड़ीं. देश में आपातकाल लागू होने के बाद एके राय को जेल में डाल दिया. राय दा ने हजारीबाग जेल से ही वर्ष 1977 में धनबाद से निर्दलीय चुनाव लड़ा और सांसद बने. 60 के दशक में इंजीनियर की नौकरी छोड़कर राजनिति में आए थे. वर्ष 1980 और 1989 के लोकसभा चुनावों में जीत दर्ज की. झारखंड को अलग राज्य बनाने के आंदोलन में उन्होंने अहम योगदान दिया. अलग झारखंड राज्य के आंदोलन की अगुवाई की. धनबाद में 4 फरवरी 1973 को विनोद बिहारी महतो, शिबू सोरेन के साथ मिलकर झारखंड मुक्ति मोर्चा (झामुमो) का गठन किया.
आदिवासी से अधिक सर्वहारा कोई नहीं : एके राय
बंगाल से आए राय दा का कहना था कि आदिवासी से अधिक सर्वहारा कौन है? मार्क्सवादी होते हुए भी कई वाम दलों का उन्होंने विरोध किया. झारखंड को अलग राज्य बनाने की मांग का समर्थन किया. राय दा के निधन पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) और भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) से जुड़े लोगों ने लिखा कि राय दा कॉमरेड थे, जो मार्क्सवाद के साथ-साथ विवेकानंद को भी मानते थे. हर विचारधारा के लोग उनके मुरीद रहे.
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