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Dhanbad news: डॉ रामचंद्र जेना का शोध ‘नेचर’ पत्रिका में प्रकाशित

गोविंदपुर स्थित आरएस मोर कॉलेज के बॉटनी विभाग के असिस्टेंट प्रोफेसर और वैज्ञानिक डॉ रामचंद्र जेना का शोध प्रतिष्ठित नेचर पत्रिका ने प्रकाशित किया है. उन्होंने आम की 70 प्रजातियों की डीएनए फिंगरप्रिंटिंग की है.

धनबाद.

आनुवांशिक रूप से पूर्वी भारत में आम की प्रजातियों में सबसे अधिक विविधता पायी जाती है. यह खुलासा गोविंदपुर स्थित आरएस मोर कॉलेज के बॉटनी विभाग के असिस्टेंट प्रोफेसर और वैज्ञानिक डॉ रामचंद्र जेना के शोध से हुआ है. डॉ जेना ने पूरे देश के विभिन्न हिस्सों में पायी जाने वाली आम की 70 प्रजातियों की डीएनए फिंगरप्रिंटिंग की है. उनके इस शोध को प्रतिष्ठित नेचर पत्रिका ने प्रकाशित किया है. अपने शोध में डॉ जेना ने बताया है कि बिहार, बंगाल, ओडिसा और झारखंड जैसे पूर्वी भारतीय राज्यों में आम की प्रजातियों में अधिक आनुवांशिक विविधता पायी जाती है. इस क्षेत्र में सबसे अधिक आम की प्रजातियां मौजूद हैं. उन्होंने अपने शोध में पौधों की डीएनए फिंगरप्रिंटिंग तकनीक के फायदों पर भी प्रकाश डाला है. डॉ जेना के नाम अब तक 40 राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय शोध पत्र प्रकाशित हो चुके हैं.

सैपलिंग से होगी प्रजातियों की पहचान

डॉ रामचंद्र जेना के अनुसार, डीएनए फिंगरप्रिंटिंग की मदद से आम की सैपलिंग से ही उनकी प्रजातियों की पहचान संभव हो पायेगी. यह तकनीक किसानों के लिए अत्यंत लाभकारी है, क्योंकि वे अपनी पसंदीदा प्रजाति की पहचान सैपलिंग काल के दौरान ही बिना किसी गलती के कर सकते हैं. डॉ रामचंद्र बताते हैं कि डीएनए फिंगरप्रिंटिंग तकनीक फसल या फल की बायो पायरेसी (जैव चोरी) को रोकने में सक्षम है. अगर किसी फसल या फल की डीएनए फिंगरप्रिंटिंग पहले ही की जा चुकी है, तो उसे किसी अन्य स्थान पर ले जाकर नयी प्रजाति घोषित नहीं की जा सकती.

बीमारी मुक्त फसल की पहचान

डॉ जेना ने बताया कि डीएनए फिंगरप्रिंटिंग तकनीक के जरिए किसी फसल या फल के शुरुआती चरण में ही यह पता लगाया जा सकता है कि उसमें रोग प्रतिरोधक क्षमता कितनी है. इससे किसान शुरुआत में ही बेहतर प्रजातियों की पहचान कर सकते हैं.

क्यों महत्वपूर्ण है डीएनए फिंगरप्रिंटिंग

डॉ रामचंद्र जेना ने उत्कल विश्वविद्यालय से पीएचडी किया है. वह बताते हैं कि डीएनए फिंगरप्रिंटिंग तकनीक पौधों के प्रजनकों को विविध, अनोखे और उपयुक्त पौधों का चयन करने में मदद करती है. इससे प्रजनन कार्यक्रम तेजी से आगे बढ़ता है और फसल सुधार कार्यक्रम अधिक सफल होता है. यह तकनीक सही प्रकार (बिल्कुल समान) के पौधों की पहचान करने में मदद करती है. टिशू कल्चर के बाद तैयार पौधों की पहचान के लिए भी यह तकनीक अत्यधिक उपयोगी है. इससे सुनिश्चित किया जा सकता है कि बाजार में सही पौधे पहुंचें और किसान बेहतर फसल उत्पादन कर सके.

डिस्क्लेमर: यह प्रभात खबर समाचार पत्र की ऑटोमेटेड न्यूज फीड है. इसे प्रभात खबर डॉट कॉम की टीम ने संपादित नहीं किया है

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