धनबाद, अशोक कुमार: आईआईटी आईएसएम धनबाद आज सोमवार को अपना 99वां स्थापना दिवस मनाने जा रहा है. इस संस्थान ने भारत में माइनिंग उद्योग के विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया है. इसके इसी योगदान को देखते हुए भारत सरकार ने इसे 2016 में आईआईटी का दर्जा दे दिया. इसकी स्थापना नौ दिसंबर 1926 को माइनिंग इंजीनियरिंग में शिक्षा और प्रशिक्षण के लिए की गयी थी. जब भारत के खनन क्षेत्र को कुशल पेशेवरों की आवश्यकता थी, इस संस्थान ने तकनीकी शिक्षा के क्षेत्र में अग्रणी भूमिका निभायी और माइनिंग इंजीनियरिंग के पाठ्यक्रम को आधुनिक रूप से तैयार किया. इसमें इसके भारतीय नेतृत्व की अहम भूमिका रही है.
आजादी से पहले इनके हाथों में था नेतृत्व
आजादी से पहले इसका नेतृत्व हमेशा ब्रिटिश अधिकारियों और शिक्षकों के हाथों में था, जिनका उद्देश्य आइएसएम के माध्यम से ब्रिटिश उद्योगों की खनिज आवश्यकताओं को पूरा करना था, लेकिन आजादी के बाद जैसे ही संस्थान का नेतृत्व भारतीय हाथों में आया, इसका उद्देश्य न केवल खनिजों की खनन तकनीक को आधुनिक बनाना था, बल्कि खनन उद्योग के माध्यम से देश के सतत विकास को सुनिश्चित करना भी हो गया.
आज हैं 7800 से अधिक विद्यार्थी
आज संस्थान में 7800 से अधिक विद्यार्थी हैं. 1926 में शुरू हुए संस्थान के पहले बैच में सभी 22 छात्र भारतीय मूल के थे. आज संस्थान में 376 शिक्षक हैं, वहीं शुरू में ब्रिटिश मूल के सिर्फ तीन शिक्षक थे. शुरुआत के सात सालों तक संस्थान का नेतृत्व किसी आधिकारिक प्रशासनिक पद के हाथों में नहीं था. उस समय संस्थान के प्रशासनिक कार्यों की जिम्मेदारी शुरुआती शिक्षकों में सबसे वरिष्ठ डॉ जॉन चार्ल्स एस के पास थी. 1926 से 1933 तक संस्थान अपने स्थापना के दौर से गुजर रहा था. 1933 में संस्थान में आधिकारिक रूप से पहले प्रिंसिपल की नियुक्ति की गयी. ब्रिटिश माइनिंग इंजीनियर डॉ डेविड पेनमैन को संस्थान का पहला प्रिंसिपल नियुक्त किया गया. उन्होंने 1936 तक इस पद पर कार्य किया. उन्हें ही संस्थान का संस्थापक प्रिंसिपल माना जाता है. यह जानकारी प्रो एससी अवसरला द्वारा लिखी गई पुस्तक ‘‘द इंडियन स्कूल ऑफ माइन्स: ए हिस्टॉरिकल पर्सपेक्टिव’’ में उपलब्ध है. संस्थान के शुरुआती तीन शिक्षक थे डॉ जॉन चार्ल्स एस, डॉ विलियम लॉरेंस स्मिथ और सैमुअल पैट्रिक स्मिथ. ये तीनों माइनिंग इंजीनियर थे और इनकी भूमिका संस्थान के शुरुआती पाठ्यक्रम तैयार करने में अहम थी.
डॉ धनेन्द्र नाथ सेन : पहले भारतीय मूल के शिक्षक
संस्थान की स्थापना के एक वर्ष बाद 1927 में पहले भारतीय मूल के फैकल्टी सदस्य प्रो धनेन्द्रनाथ सेन की नियुक्ति हुई थी. डॉ सेन का संस्थान के प्रारंभिक वर्षों में शैक्षिक संरचना को आकार देने में अहम योगदान था. वह अप्लाइड जियोलॉजी विभाग में प्रोफेसर थे और उन्होंने विभाग के पाठ्यक्रम को विकसित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी. संस्थान के शुरुआती वर्षों में भारतीय छात्रों के मार्गदर्शन में भी उनका योगदान था. चूंकि शुरुआती छात्र भारतीय मूल के थे, ब्रिटिश शिक्षकों को छात्रों से जुड़ी समस्याओं को समझने में कठिनाई होती थी, और डॉ सेन इस स्थिति में भारतीय छात्रों की आवश्यकताओं के अनुसार पाठ्यक्रम को अनुकूलित किया.
डॉ आरपी सिन्हा : पहले भारतीय प्रिंसिपल
प्रो आरपी सिन्हा आईएसएम धनबाद के पहले भारतीय प्रिंसिपल थे. उनकी नियुक्ति 1949 में हुई थी और वह 1959 तक इस पद पर कार्यरत रहे. उन्होंने संस्थान के विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया. उनके नेतृत्व और दृष्टिकोण ने संस्थान को उसके शुरुआती विकास के चरणों में आकार देने में अहम भूमिका निभायी. उन्होंने माइनिंग इंजीनियरिंग के पाठ्यक्रम में आधुनिक तकनीकों और प्रथाओं को शामिल किया, जिससे भारतीय खनन उद्योग की बढ़ती जरूरतों के अनुरूप इसे ढालने में मदद मिली. डॉ सिन्हा ने खनन और खनिज तकनीक के क्षेत्र में अनुसंधान को बढ़ावा दिया और शिक्षकों तथा छात्रों को प्रेरित किया कि वे भारतीय खनन उद्योग की व्यावहारिक चुनौतियों को हल करने वाले नवाचारों में हिस्सा लें. उनके कार्यकाल में संस्थान की प्रयोगशालाओं, पुस्तकालयों और क्षेत्रीय उपकरणों सहित सुविधाओं का आधुनिकीकरण किया गया, जिससे छात्रों को बेहतर शिक्षा और प्रशिक्षण मिल सका. उनके कार्यकाल में ही पेनमैन ऑडिटोरियम का निर्माण हुआ, जिसे संस्थान के पहले प्रिंसिपल डॉ डेविड पेनमैन को समर्पित किया गया है.
1967 से प्रवेश परीक्षा से होने लगा नामांकन
इंडियन स्कूल ऑफ माइंस में वर्तमान में छात्रों का नामांकन जेईई एडवांस के माध्यम से होता है. जेईई के माध्यम से नामांकन की शुरुआत 1997 में हुई थी. इससे पहले आईएसएम ने 1967 से 1996 तक अखिल भारतीय प्रवेश परीक्षा आयोजित की थी. 1967 से पहले संस्थान में प्रवेश सामान्यतः शैक्षिक योग्यताओं, सिफारिशों, और कई मामलों में संस्थान या सरकारी प्रशासन द्वारा सीधे चयन के आधार पर होता था. 1926 में पहले बैच के 22 छात्रों का चयन भी इसी आधार पर देश के विभिन्न हिस्सों से किया गया था.
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