कब चेतेंगे जवाबदेही से भागते ये जवाबदेह, धनबाद की बेटियों के दो सवाल ने सबको निरुत्तर कर दिया- जीवेश रंजन सिंह
हाल में कुछ ऐसी घटनाएं हुईं, जिन्होंने यह सोचने पर विवश कर दिया है कि व्यवस्था के तीमारदार आज हकीकत में किस रोल में हैं. कोयला चोरी रोकने की शपथ बैठक में ली जाती है पर बाद में फिर वही ढाक के तीन पात.हाल में कुछ ऐसी घटनाएं हुईं जिन्होंने सोचने पर मजबूर किया..
जीवेश रंजन सिंह
वरीय संपादक, प्रभात खबर
हाल में कुछ ऐसी घटनाएं हुईं, जिन्होंने यह सोचने पर विवश कर दिया है कि व्यवस्था के तीमारदार आज हकीकत में किस रोल में हैं. दरअसल, आज जो व्यवस्थागत ताना-बाना है उस पर एक नजर डालें, तो सबकुछ बेहतर लगता है. रामराज की कल्पना साकार हो जाती है, पर सच यह है कि कागजों पर दुरुस्त भवनों में जल कर 19 लोगों की मौत हो जाती है, क्योंकि नियमों का पालन केवल मौखिक हुआ.
बैठक के बाद सब ढाक के तीन पात…
समाज सेवा की शर्त पर बहाल निगमकर्मी अपने अहम की पूर्ति के लिए हड़ताल पर जाते हुए भी शर्मिंदा नहीं होते, भले शहर में टनों कचरा का ढेर लग जाये. कुछ ही दिन पहले महामहिम राज्यपाल और राज्य के मुख्यमंत्री ने कोयला चोरी को लेकर दुख जताया था, रोकने को ताकीद की थी, तो हाल ही में संपन्न टास्क फोर्स की बैठक में कोयला से लेकर प्रशासन तक के हुक्मरानों ने ताल ठोंक कर कोयला चोरी रोकने की शपथ ली. एक-दूसरे पर आरोप भी लगाये, पर बैठक के बाद सब ढाक के तीन पात. हद तो यह कि कई नये अवैध खदान भी बन गये. शायद होली से पहले होली को और रंगीन करने के लिए कोयला चोरी को और रेस करने की तैयारी हो.
बच्चों का दर्द
शायद यही कारण है कि बिंदास जीवन जीने के काल में भी किशोरवय बच्चे निराश हैं. तभी तो प्रभात खबर कार्यालय आयी धनबाद की बेटियों के दो सवाल : वर्षों से लगा है कार्य प्रगति पर का बोर्ड, पर काम में कोई प्रगति क्यों नहीं दिखती? और क्यों पुलिस के सामने कोयला चोरी होती है और वो कुछ नहीं बोलते? ….ने सबको निरुत्तर कर दिया.
रत्तीभर दिल-दिमाग रखने वाले भी इससे इनकार नहीं कर सकते कि बच्चों ने कड़वा सच सामने ला दिया. ये वो बच्चे नहीं थे, जिनके माता-पिता चांदी के चम्मच से खीर खिला कर पाल रहे, बल्कि वो थे जिनके अभिभावक हाड़तोड़ मेहनत कर बच्चों को सरकारी स्कूलों में पढ़ा भविष्य गढ़ने की कोशिश कर रहे हैं.
और अंत में….
आज कागजों पर सबकुछ फिट रखने का चलन है. ऊपर से चल कर आयी योजनाएं नीचे आते-आते दम तोड़ रही हैं. अगर ऐसा नहीं होता, तो मानक के अनुसार भवन बनतीं और अकाल मौतें नहीं होतीं. राष्ट्र की संपत्ति कोयले की चोरी परवान पर नहीं होती. गांव व शहर के बीच विकास का फासला पहाड़ सा नहीं होता. सरकारी अस्पतालों में इलाज के लिए बाहर से दवा नहीं खरीदनी होती. सुखद भविष्य की कल्पना लिये नौनिहाल मस्त रहते, व्यवस्था के प्रति दुखी नहीं. अब भी समय है खुद को जगाने का, कार्यालयों के बोर्ड से उतर कर लोगों के दिल में अपनी जगह बनाने का. अगर ऐसा हो सका तो ना केवल फिजा बदल जायेगी, बल्कि तत्काल सब कुछ भूलने वाले इस मानस काल में आप भी जीवंत हो जायेंगे.