जीवेश रंजन सिंह, वरीय संपादक (प्रभात खबर)
ठंड अपने रवानी पर है, तो पारा के लुढ़कने की गति भी कम तेज नहीं. ऊपर से कोढ़ में खाज साबित हो रही कुहासे की घनी चादर. इस हाड़ कंपानेवाली ठंड में सबसे ज्यादा परेशान हैं गरीब. सरकारी खाता-बही में इनके नाम कई चीजें दर्ज हैं. कहीं कंबल बांट देने का दावा है, तो कहीं अलाव जलाने के साथ-साथ आश्रय गृह की पुख्ता व्यवस्था की बात कह अपनी-अपनी पीठ खुद थपथपा रहे हैं व्यवस्था के रहनुमा. पर सच इससे इतर है.
हकीकत कार्यालयों के बंद कमरे में हीटर की गर्मी के बीच नहीं दिखती, अगर देखना हो तो किसी रात अपने गर्म बेडरूम से सड़क पर निकल कर देखें. सब कुछ साफ हो जायेगा. ठिठुरे लोग और सीलन भरे आश्रय गृह के कमरे अपनी गवाही खुद देंगे. दरअसल, फाइलों व बाबुओं की अपनी व्यवस्था व चाल होती है. अक्तूबर से ही जहां जाड़े में गरीबों को बचाने के नाम पर फाइलें मोटी होती जाती हैं, वहीं ऑन व ऑफलाइन बैठकों का भी दौर जारी रहता है, यानी कागजों पर आल इज वेल. हकीकत में आइवाश.
ऐसी स्थिति में व्यवस्था को कोसने या फिर मांगने से बेहतर है कि समाज खुद आगे आये. आज लगभग हर घर की अलमारी में कुछ ऐसे गर्म कपड़े पड़े मिल जायेंगे जो शायद ही कभी पहने गये हों. या फिर ऐसे होंगे जो आपकी पसंद से अलग हो गये हों. क्या एक बार ऐसे गर्म कपड़ों पर विचार नहीं किया जा सकता. रोज सैकड़ों रुपये पेट्रोल और अन्य पर खर्च कर देने वाला समाज एक बार खुद क्यों नहीं आगे आता. जाड़े की शाम की एक तफरीह किसी खरीदारी, किसी आउटिंग या फिर रेस्टोरेंट के लिए न होकर ऐसे जरूरतमंदों के लिए हो, तो यकीन मानिये जिस गरीब के तन पर आपके गर्म कपड़े जायेंगे उसकी आंखों की चमक आपके लिए नूर का काम करेगी.
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हर बात के लिए व्यवस्था की बाट जोहने की जगह क्यों नहीं एक बार खुद नेकी की दीवार बनें. अपनी गाड़ी में कुछ गर्म कपड़े रखें और जहां कोई जरूरतमंद दिख जाये उसे गर्म कपड़े दे अपने स्नेहरूपी गर्मी से नया जीवन प्रदान करें. विश्वास करें, इस देने के सुख की अनुभूति जीवन रंगीन कर जायेगी.