भारत छोड़ो आंदोलन में वाचस्पति तिवारी ने अग्रेजों की यातनाएं सहीं, पर नहीं हुए विचलित
महात्मा गांधी के आह्वान पर दुमका के वाचस्पति तिवारी ने भारत छोड़ो आंदोलन में काफी सक्रियता दिखायी. अंग्रेजों की यातनाएं सही, पर कभी विचलित नहीं हुए. स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद संताल परगना क्षेत्र में शिक्षा का अलख जगाने का काम किया.
Azadi Ka Amrit Mahotsav: देश की आजादी के लिए बिगुल फूंकने और ब्रिटिश हुकूमत के छक्के छुड़ाने में तत्कालीन संताल परगना जिला के युवाओं ने भी सक्रिय भागीदारी निभायी थी. ऐसे ही एक युवा थे वाचस्पति तिवारी. छात्र जीवन से ही इनके मन में देश प्रेम की भावना पूर्णरूप से विद्यमान थी. वे महात्मा गांधी के अनन्य भक्त थे. ब्रिटिश हुकूमत में देश में हो रहे अत्याचार के बारे में सुनकर उनका मन उद्धलित होता रहता था.
महात्मा गांधी के आह्वान पर भारत छोड़ो आंदोलन में कूदे
वाचस्पति तिवारी का जन्म 20 अक्टूबर, 1913 को तत्कालीन संताल परगना जिला के महेशपुरराज प्रखंड अंतर्गत देवीनगर ग्राम में हुआ था. प्रारंभिक शिक्षा घर पर ही प्राप्त करने के बाद पाकुड़ राज हाई स्कूल से इन्होंने मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण की. वर्ष 1935 ई में उनका विवाह द्रोपदी देवी के साथ हुआ. 1941 ई तक उनकी दो पुत्रियां एवं एक पुत्र जन्म ले चुके थे. बावजूद देश की आजादी की लड़ाई में वे सक्रिय बने रहे. महात्मा गांधी के आह्वान पर भारत छोड़ो आंदोलन में काफी सक्रियता दिखायी. इनके मन में ये भावना थी कि कैसे अंग्रेजों को देश से भगाया जाए तथा हमारा देश आजाद हो जाये.
अंग्रेजों की यातनाएं सहे थे वाचस्पति तिवारी
इसी क्रम में वाचस्पति तिवारी ने 9 अगस्त, 1942 को शराब की भठ्ठी में आग लगा दी तथा शराब की भट्टी को तहस नहस कर दिया. फिर बाद में ये अंग्रेज सैनिकों द्वारा पकड़ लिए गए. पकड़े जाने के बाद अंग्रेज सैनिकों द्वारा इन्हें कैद कर लिया गया. उस समय इनके पुत्र शारदा प्रसाद तिवारी मात्र एक वर्ष के थे. इन्हें घोड़े पर सवार करके महेशपुरराज थाना ले जाया गया तथा दो दिनों तक थाना हाजत में रखा गया. रास्ते में ये भारत माता की जय का नारा लगाते रहे. थाना हाजत में तरह-तरह की यातनाएं दी गई. दो दिनों तक थाना हाजत में रखने के बाद इन्हें पाकुड़ कारा में स्थानांतरित कर दिया गया.
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पटना सेंट्रल जेल भेजे गये
अंग्रेजों के राज में इन्हें पाकुड़ कारा में भी तरह तरह की यातनाएं दी गई, लेकिन ये विचलित नहीं हुए. जब वे नहीं टूटे तो पाकुड़ कारा में एक सप्ताह तक रखने के बाद इन्हें पटना सेंट्रल जेल में स्थानांतरित कर दिया गया. अगस्त 1942 से अप्रैल 1943 ई तक ये पटना सेंट्रल जेल में रहे. बाद में अप्रैल 1943 ई में स्वतंत्रता संग्राम में भाग लेने वाले लोगों को जेल से रिहा कर दिया गया. संताल परगना के सभी कैदियों को जेल में एक ही जगह पर रखा गया था जिसमें दुमका के स्वतंत्रता सेनानी लाल हेंब्रम भी साथ थे.
संताल में शिक्षा का अलख जगाने को ठाना
जेल से रिहा होने के बाद ये गोपालपुर (वर्तमान मेें बांग्लादेश में) में सुगर फैक्टरी के उच्च विद्यालय में वाचस्पति बतौर एक शिक्षक नियुक्त हो गए. 15 अगस्त, 1947 को देश आजाद हुआ. स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद हिन्दुस्तान- पाकिस्तान का विभाजन होने पर दोबारा गोपालपुर नहीं गये. तत्कालीन समय में संताल परगना के क्षेत्र में शिक्षा की घोर कमी थी. इन्होंने ठान लिया कि इस पिछड़े इलाके में शिक्षा का अलख जगाना है.
स्वतंत्रता संग्राम में स्मरणीय योगदान के लिए मिला सम्मान
उधर, पाकुड़राज एवं संताल परगना दुमका जिला मुख्यालय यानी 100 किलोमीटर के बीच में एक भी उच्च विद्यालय नहीं था. इन्होंने 1949 में अपने ग्राम देवीनगर एवं आमडापाड़ा के 10 विद्यार्थियों को लेकर एक उच्च विद्यालय स्थापित किया. वाचस्पति तिवारी के पढ़ाये गये दो छात्र आइएएस भी बने. स्वतंत्रता के 25 वर्ष के अवसर पर 15 अगस्त, 1972 को स्वतंत्रता संग्राम में स्मरणीय योगदान के लिए राष्ट्र की ओर से तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने उन्हें ताम्र पत्र भेंट किया था. स्वतंत्रता सेनानी घोषित होने पर उन्हें प्रशस्ति पत्र एवं दो सौ रुपये मासिक स्वतंत्रता सेनानी पेंशन दिया जाने लगा.
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Duty First and self last रहा सिद्धांत
जून 1976 में ये आमड़ापाड़ा उच्च विद्यालय से सेवा निवृत्त हुए एवं 8 दिसम्बर 1976 को अपने पैत्रिक ग्राम देवीनगर में उन्होंने अंतिम सांस ली. इनका सिद्धान्त था ‘Duty First and self last’ इनके सिद्धांत को आगे बढ़ाते हुए उनके दो पुत्र शारदा प्रसाद तिवारी और महेश्वर प्रसाद तिवारी शिक्षा विभाग के उच्च विद्यालय में शिक्षक के रूप में नियुक्त हुए एवं बच्चों को शिक्षित करने का काम किया. इनके छोटे पुत्र महेश्वर प्रसाद तिवारी बतौर प्रधानाध्यापक श्री रामकृष्ण आश्रम उच्च विद्यालय दुमका से सेवानिवृत हुए.
रिपोर्ट : आनंद जायसवाल, दुमका.