श्रीमद्भागवत कथा के श्रवण करने से धुंधकारी को भी मिली थी मुक्ति
पत्नी धंधुली कुलीन और सुंदर थी, लेकिन अपनी बात मनवाने वाली क्रुरु और झगड़ालु थी
मसलिया. मसलिया के लताबड़ गांव में चल रहे श्रीमद्भागवत कथा के दूसरे दिन कथावाचिका देवी ज्योति शास्त्री ने श्रोताओं को आत्मदेव ब्राह्मण की कथा सुनाई, जिसे सुन श्रोता श्रद्धालु मंत्रमुग्ध रहे. उन्होंने बताया कि तुंगभद्रा नदी के तट पर रहने वाले ब्राह्मण आत्मदेव बड़े ज्ञानी थे. उनकी पत्नी धंधुली कुलीन और सुंदर थी, लेकिन अपनी बात मनवाने वाली क्रुरु और झगड़ालु थी. धन वैभव से संपन्न आत्मदेव को कोई संतान नहीं होने का बड़ा ही दुख था. अवस्था ढल जाने पर संतान के लिए वह दान करने लगे. लेकिन कोई लाभ नहीं हुआ तो प्राण त्याग के लिए वन चले गये. जब अपने जीवन का अंत करने जा रहे थे तो एक रास्ते में संत महात्मा मिले, संत के पूछने पर उन्होंने संतान के बिना जीवन सूना-सूना लगने की बात कही गयी. बहाने के लिए एक गाय रखी थी सोचा था कि बछड़े होंगे उनके साथ अपना मन बहला लूंगा. लेकिन वह भी बांझ निकली. संतान की इच्छा के हट करने पर महात्मा द्वारा आत्मदेव को एक फल दिया गया. आत्मदेव की पत्नी धंधुली ने संदेह की वजह से फल स्वयं नहीं खाया. बहन जो गर्भवती थी जब घर आई तो उसने पूरी बात बताई जिसपर बहन ने कहा कि मेरे पेट में जो बच्चा है वह तुम ले लेना फल गाय को खिला दो. आत्मदेव की पत्नी ने फल गाय को खिला दिया. कुछ माह बाद गाय ने एक बच्चे को जन्म दिया. जिसका शरीर पूरा मनुष्य का था, कान गाय के तरह थे. जिसका का नाम गोकर्ण रखा गया. धंधुली की बहन ने जिस बच्चे को जन्म दिया उसका नाम धुंधकारी रखा गया. गोकर्ण ज्ञानी और धर्ममात्मा हुआ और धुधंकारी दुराचारी, मदिराचारी और दुरात्मा निकला. बुरी आदत में पड़कर चोरी करने लगा और उसकी हत्या हो गयी. बाद में वह प्रेत बना जिसकी मुक्ति के लिए गोकर्ण महाराज ने भागवत कथा का आयोजन किया. श्रीमदभागवत कथा के श्रवण करने से धुंधकारी को प्रेत योनी से मुक्ति मिली. कथा के सुंदर प्रसंग के साथ कथावाचिका श्रीमती शास्त्री जी ने समय समय पर सुंदर भजन से श्रद्धालुओं को झुमाते रहे. कथा का आयोजन लताबड़ ग्रामवासियों द्वारा किया गया है.