Jharkhand News: दुमका साहित्य उत्सव में बोले TRI के निदेशक रणेंद्र, किताबों ने किए उनके सारे सपने पूरे

Jharkhand News: दुमका के साहित्य उत्सव में टीआरआई (जनजातीय शोध संस्थान) के निदेशक रणेंद्र ने कहा कि किसी व्यक्ति के ओहदे का अंदाजा उसके घर के निजी पुस्तकालय से लगाया जा सकता है. पिता उन्हें इंजीनियर बनाना चाहते थे, लेकिन किताबों ने उन्हें बहुत कुछ बना दिया. किताबों ने उनके सारे सपने पूरे कर दिए.

By Prabhat Khabar Digital Desk | April 16, 2022 5:30 PM

Jharkhand News: झारखंड में राजकीय पुस्कालय की ओर से दुमका जिला प्रशासन द्वारा आयोजित साहित्य उत्सव का उद्घाटन दीप प्रज्वलित कर किया गया. कार्यक्रम के उद्घाटन के बाद प्रथम सत्र में मेरे जीवन में पुस्तकालय विषय पर परिचर्चा हुई. इस सत्र का संचालन चंद्रहास चौधरी ने किया. इस दौरान टीआरआई (जनजातीय शोध संस्थान) के निदेशक रणेंद्र ने कहा कि किसी व्यक्ति के ओहदे का अंदाजा उसके घर के निजी पुस्तकालय से लगाया जा सकता है. पिता उन्हें इंजीनियर बनाना चाहते थे, लेकिन किताबों ने उन्हें बहुत कुछ बना दिया. किताबों ने उनके सारे सपने पूरे कर दिए. किताबों और पुस्तकालय का आकर्षण वह रोग है जिसे लग जाता है, वह मुक्त नहीं हो सकता है.

हर जिले तक पहुंचे अभियान

साहित्य उत्सव में महादेव टोप्पो ने कहा कि छात्र जीवन में ही पुस्तकालय से पुस्तक लेकर पढ़ा करता था. तब उन्हें यकीन नहीं था कि एक दिन वे भी लेखक बनेंगे और उनकी किताबें पुस्तकालय में होंगी. दुमका में साहित्य का यह जो अभियान शुरू हुआ है, वह झारखंड के हर जिले तक पहुंचना चाहिए. इस दौरान प्रोफ़ेसर चेतन ने कहा कि उनका पहला पुस्तकालय उनके घर की निजी लाइब्रेरी थी, जिसे पिताजी ने समृद्ध किया था, वहीं से पुस्तकों से जुड़ाव बना. आज उपहार में लोग बहुत सारी चीजें देते हैं, लेकिन पुस्तक उपहार में देने का चलन घटता जा रहा है. पुस्तकालय एक चुप्पी होती है लेकिन एक तरह का शोर भी होता है जिसमें एक साथ बहुत सारी किताबें बहुत कुछ कहती हैं. इस दौरान चुंडा सोरेन सिपाही ने कहा कि शिक्षा के क्षेत्र में भाषा और साहित्य का महत्वपूर्ण योगदान है. इस पुस्तकालय में संथली भाषा के महत्वपूर्ण पुस्तकों को रखा जाना चाहिए.

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साहित्यिक सांस्कृतिक हूल है साहित्य उत्सव

साहित्य अकादमी युवा पुरस्कार से सम्मानित अनुज लुगुन ने कहा कि यह हूल की धरती है, जहां आज साहित्य का यह उत्सव हो रहा है. यह भी एक प्रकार का साहित्यिक सांस्कृतिक हूल ही है. आज अगर यहां तक पहुंचा हूं तो पुस्तकालय के रास्ते से होकर पहुंचा हूं. यूं तो उनकी पहली पाठशाला नदी, पहाड़ और जंगल ही हैं जो बाद में जाकर किताबों तक पहुंचा. इस दौरान लेखक रजत उभयकर ने कहा कि पुस्तकालय एक ऐसा स्थान, जहां से बेहतर जीवन की कल्पना की जा सकती है. इस दौरान लेखक मिहिर वत्स ने कहा कि पाठ्यक्रम से हटकर भी पुस्तकें पढ़ें, तभी जीवन में कुछ बेहतर कर सकते हैं क्योंकि पुस्तकालय के अंदर जीवन है. दुमका के लेखक विनय सौरभ ने कहा कि जिला प्रशासन का आभारी हूं कि उन्होंने पुस्तकालय को बहेतर बनाने का कार्य किया है और आज यहां पुस्तकों पर बात हो रही है. वे जेब खर्च के पैसे बचाकर किताबें और पत्रिकाओं को पढ़ते थे.

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साहित्य उत्सव है साहित्यिक सांस्कृतिक आंदोलन

साहित्य अकादमी युवा पुरस्कार से सम्मानित लेखक निलोत्पल मृणाल ने कहा कि दुमका आज लोगों को गूगल की संकरी गली से निकालकर पुस्तकालय तक पहुंचा रहा है. आज का यह साहित्य उत्सव साहित्यिक सांस्कृतिक आंदोलन की तरह है जिसे आने वाले वर्षों में याद किया जाएगा. कार्यक्रम के दूसरे सत्र में पक्षी वैज्ञानिक विक्रम ग्रेवाल ने भारत में वन्य जीव संकट पर पीपीटी के माध्यम से प्रस्तुति दी, जिसमें वन्य जीवों के प्रति आम जनों को सजग एवं संवेदनशील बनाने को लेकर कई महत्वपूर्ण बातें कहीं. उन्होंने कहा कि जंगल के घटने से वन्यजीव घट रहे हैं. ऐसे में वन्यजीवों का संरक्षण एक बड़ी चुनौती है. प्रकृति में नदी, जंगल की मां होती है, जिसका संबंध वन्यजीवों से है.

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आदिवासी साहित्य का वृहद इतिहास

अनुज लुगुन ने कहा कि जब हम आदिवासी साहित्य की बात करते हैं तो आदिवासी जीवन और संस्कृति की बात होती है. आदिवासी साहित्य का अपना वृहद इतिहास है, जिसकी परंपरा में लोकगीत एवं लोक कथाएं भरे पड़े हैं जो आदिवासी साहित्य को समृद्ध करते हैं. आदिवासी समाज की अभिव्यक्ति उसकी ज्ञान परंपरा है. लोक गाथा में जो संदेश है वह आदिवासी समाज का लोक चिंतन है. कई मौखिक अभिव्यक्ति अभी हैं जिनका अनुवाद अभी तक नहीं हो सका है. महादेव टोप्पो ने कहा आदिवासी साहित्य की परंपरा लोकगीत एवं लोक कथाओं से होकर गुजरती है, जिसका प्रकृति से गहरा संबंध रहा है. 1970-80 के दशक में आदिवासी साहित्य का नया स्वरूप उभर कर सामने आ रहा था, जिसमें सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक आंदोलनों की अभिव्यक्ति मुखर हो रही थी. 90 के दशक के बाद बड़ी संख्या में नए आदिवासी लेखक उभर कर आए, जो मुख्यधारा के पत्र-पत्रिकाओं में आदिवासी साहित्य को सामने लाने का कार्य कर रहे थे.

Posted By : Guru Swarup Mishra

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