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हूल दिवस : जमींदार-महाजन के बाद अंग्रेजों का बढ़ा अत्याचार, तो संतालों ने भोगनाडीह से लगाया था हूल का नारा

अत्याचार और शोषण के विरुद्ध संतालों में अंदर ही अंदर आंदोलन की सुलगती चिंगारी भयंकर रूप में फूटी, तो हूल का नारा लगा था. ब्रिटिश अधिकारी राहत दिलाने की पहल नहीं करेंगे, तो अपने स्तर से ही इसका समाधान करेंगे. संतालों का उस दिन का यही निश्चय ही संताल हूल का बीजारोपण साबित हुआ.

By Prabhat Khabar News Desk | June 30, 2023 6:11 AM

दुमका, आनंद जायसवाल : 1854-55 में वीरभूम, भागलपुर सहित आसपास के इलाकों में रबी की फसल काफी अच्छी हुई थी. इस इलाके में संतालों ने खेती करने के लिए खूब मेहनत की थी. जंगल-झाड़ को काटकर जमीन को खेती योग्य बनाने के बाद वृहत पैमाने पर उन्होंने अन्न उपजाया था. उस वक्त इस्ट इंडिया कंपनी रेल की पटरियां भी बिछा रही थी. जंगल-झाड़ की सफाई कराने के साथ-साथ रेल की पटरियों को बिछाने का यह काम भी तब जोरशोर से चल रहा था. अंग्रेज पदाधिकारियों ने उस वक्त ब्रिटिश हुकूमत को रिपोर्ट की थी कि खेती अच्छी हुई है और यहां चल रहे रेलवे के काम से समृद्धि भी आयी है. संतालों का खेतों का मालिक बनना, खेती से उनके जीवन में खुशहाली आना अंग्रेजों को सुहाता नहीं था. ऐसे में उन्हें बेदखल करने के लिए साजिश रची जाने लगी. ऐसे में ब्रिटिश हुकूमत ने कर वसूली में और तल्खियत बढ़ा दी. अब तक संतालों पर जमीन को खेतीयोग्य बनाने का दवाब था, पर धीरे-धीरे उनकी मेहनत व खून पसीने से उपजे अनाज पर अंग्रेजों के इशारे से जमींदारों की बुरी नजर पड़ने लगी.

संतालों के निश्चय ही हूल का बीजारोपण हुआ साबित

संतालों को अहसास हो गया कि उनकी मेहनत से प्राप्त उपज का हिस्सा अंग्रेजी हुकूमत मालगुजारी के रूप में ले रही है, तो विरोध शुरू हुआ. जमींदारों का यह दबाव और ब्रिटिश हुकूमत के रवैये से उनके बीच दूरियां बढ़ती गयी. इस बीच महाजनों-जमींदारों का शोषण, जमीन पर दखल बढ़ने लगे, तो महाजन व जमींदार निशाने पर रहने लगे. ब्रिटिश हुक्मरानों ने जमींदारों का साथ दिया, तो उनके खिलाफ भी संतालों का गुस्सा बढ़ने लगा. अंग्रेजी हुकूमत संतालों की बात सुनना नहीं चाहती थी. लोगों ने सुपरिटेंडेंट से मुलाकात की. मालगुजारी में इजाफे पर आपत्ति जतायी, पर कोई सुनवाई नहीं हुई. इसके बाद संताल अपने साथ हो रहे अन्याय के विरोध में ब्रिटिश कमिश्नर के पास भी पहुंचे, उन्होंने भी मामले को उतनी गंभीरता से नहीं लिया. ऐसे में ब्रिटिश कमिश्नर को तब संतालों ने चेतावनी दे डाली कि अगर उनके साथ अन्याय का यह दौर जारी रहेगा और ब्रिटिश अधिकारी राहत दिलाने की पहल नहीं करेंगे तो अपने स्तर से ही इसका समाधान करेंगे. संतालों का उस दिन का यही निश्चय ही संताल हूल का बीजारोपण साबित हुआ. उस वक्त तक संतालों का प्रभाव आज के कहलगांव से राजमहल तक, दक्षिण में रानीगंज तक फैला हुआ था.

सिदो मुर्मू की अगुवाई में कोलकाता कूच

30 जून, 1855 को लोगों को जुटाने का निश्चय किया गया. साल का पत्ता तब गांवों में घुमाया गया था. जब भीड़ भोगनाडीह में जुटी तो यह संख्या तकरीबन 10 हजार लोगों की थी. हर तरफ से अत्याचार व शोषण के विरूद्ध संतालों में अंदर ही अंदर आंदोलन की सुलगती चिंगारी भयंकर रूप में फूटी. निर्णय के अनुरूप संतालों ने अंग्रेजों व जमींदारों को मालगुजारी न देने का निश्चय किया. सरकारी आज्ञा न मानने की कसम खाई. सिदो मुर्मू की अगुवाई में लोगो ने कोलकाता कूच करने का निर्णय लिया. संतालों ने इतनी लंबी दूरी तय करने के लिए जो अनाज-रसद जुगाड़ किया था, वह दूसरे-तीसरे दिन ही खत्म हो गया. सिदो चाहते थे कि लोग मांगकर खाने-पीने के सामान का इंतजाम करें, पर भीड़ उत्तेजित थी. भीड़ ने अनुशासन खो दिया. हिंसक हो चुकी भीड़ आगे बढ़ रही थी तो अंग्रेजों ने रोकने की भी कोशिश की. गांव-बस्तियों में आग लगवा दिये. बावजूद व पीछे मुड़नेवाले नहीं थे. गोलियां चलवायी. तीर-धनुष व डंडे लेकर कोलकाता की ओर कूच करने जा रहे संतालों पर गोले-बारूद चलवाये गये. हालांकि, संतालों के सामने अंग्रेज टिक नहीं पा रहे थे.

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तीन पत्ते वाले साल की डाली बना संदेशवाहक

वीरभूम पर हमला करने के पूर्व 12 सितंबर, 1855 को रक्साडंगाल से विद्रोहियों ने देवघर से चले एक डाक हरकारे के हाथ तीन पत्ते वाले साल की डाली देकर संदेश भेजा कि वे तीन दिन में उनतक पहुंच रहे हैं, सामना करने को तैयार रहें. इन तीन पत्तों वाली साल की टहनी का एक-एक पत्ता विद्रोहियों के आगमन के पूर्व एक-एक दिन का प्रतीक था. छह महीने के भीतर ही संताल हुल का यह विद्रोह विप्लव रूप धारण कर पूरा संताल परगना, हजारीबाग, बंगाल के धुलियान, मुर्शिदाबाद व बांकुड़ा और बिहार के भागलपुर तक फैल गया. 21 सितंबर 1855 तक वीरभूम से दक्षिण-पश्चिम जीटी रोड पर स्थित तालडांगा और और दक्षिण पूर्व में सैंथिया से पश्चिम तथा गंगा घाटी वाले इलाके में राजमहल और भागलपुर जिला के पूर्वोत्तर और दक्षिणेत्तर इलाके तक विद्रोही गतिविधियां काफी तेज थी. इसके बाद विद्रोहियों ने पूरा वीरभूम तहस-नहस कर दिया. नारायणपुर, नलहाटी, रामपुरहाट, सैंथिया ही नहीं वीरभूम जिला का मुख्यालय सिउड़ी और उससे पश्चिम स्थित नागौर व हजारीबाग के नजदीक खड़डीहा में सियारामपुर तक सारे पुलिस चौकियों और इलाके को नवंबर 1855 के अंत तक लूटकर विद्रोहियों ने ईस्ट इंडिया कंपनी को पशोपेश में ला दिया. बिहार से बंगाल की ओर जानेवाली मुख्य सड़क पर विद्रोहियों का कब्जा हो गया और डाक हरकारे रोके जाने और उनकी डाक थैलियां लूट लिए जाने से विद्रोहियों से अग्रेजों की परेशानी बढती गयी, ऐसे में अंग्रेजों की सेना ने भी कहर बरपाया.

विद्रोहियों की घोषणा

इतिहासकार डब्ल्यूडब्ल्यू हंटर ने भी लिखा है कि जुलाई माह समाप्त होने के पहले ही हमारी सेना कई स्थानों में पराजित हो चुकी थी. अंग्रेजों के बहुत सारे केंद्र व नील कोठियां लूट ली गयी और जला दी गयी. संताल विद्रोहियों के डर से डाकिया व चौकीदार ही नहीं थानों के सिपाही व जमादार तक नौकरी छोड़कर भाग गये. विद्रोहियों ने चारों तरफ यही घोषणा कर दी है कि ईस्ट इंडिया कंपनी का राज खत्म हो गया है और संताल राज्य स्थापित हो गया है.

दामिन-इ-कोह के सीमांकन के बाद बढ़ी संतालों की बस्तियां

इस इलाके में दामिन-इ-कोह के सीमांकन के बाद संतालों की बस्तियां लगातार बढ़तीं गयी थीं. अंग्रेजी हुकूमत की अपेक्षाओं के अनुरूप वे खेती में इतनी दिलचस्पी ले रहे थे कि खेती का दायरा भी बढ़ता जा रहा था. अंग्रेजी हुकूमत तब यह चाहती भी थी कि खेती का दायरा बढ़े. उसे ज्यादा से ज्यादा राजस्व मिले. संतालों ने तब खेती को लेकर कितनी अभिरुचि दिखायी थी, इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि 1837-38 में संताल गांवों की संख्या जहां महज 40 थी, वह 1850-51 में बढ़कर 1473 तक पहुंच गयीं. वहीं, जनसंख्या जो केवल 3000 थी, बढ़कर 82000 तक पहुंच गयी थी. यानी इलाके में खेती का विस्तार होता गया और ईस्ट इंडिया कंपनी मालगुजारी बढ़ाती गयी. यही वजह रही कि 1837 में अंग्रेजी हुकूमत जहां दामिन-इ-कोह के इलाके से महज 6682 रुपये कर के रूप में वसूल पाती थी, वह 1854-55 में 58035 रुपये वसूलने के बाद भी असंतुष्ट रहती थी. संतालों को समझ में आने लगा था कि जिस भूमि पर वे खेती कर रहे, वह उनसे छीनने का प्रयास भी हो रहा. इसकी दो वजहें उन्हें नजर आ रही थी, एक तो सरकार भारी-भरकम कर वसूलने के लिए हर हथकंडे अपनाने लगी थी, दूसरा जमींदार, महाजन ऊंची दर पर उन्हें उधार बेहद आसानी से दे रहे थे और कर्ज न चुकाने पर जमीन पर ही कब्जा कर रहे थे.

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…तब 80 मील के दायरे में नहीं थे अंग्रेजों के पास 1200 सिपाही

जुलाई 1855 में जब विद्रोह के तेवर दिखने लगे थे और यह इलाका विद्रोह की वजह से पूरी तरह सुलग रहा था, तब यहां हूल को दबाने और 10 हजार विद्रोहियों को रोकने-नियंत्रित करने के लिए ईस्ट इंडिया कंपनी के पास 80 मील के दायरे में 1200 सिपाही तक नहीं थे. सावन का तब महीना था. अंग्रेजों के बारूद भींग चुके थे. केवल तीर-धनुष रहने के बावजूद भी बंदूक-गोली का डर भी विद्रोहियों के पास नहीं था. ऐसे में कंपनी को विद्रोह के दमन के लिए अलग-अलग जगहों से सेना को बुलाना पड़ा था और विद्रोह को कुचलने के लिए हर उपाय करने पड़े थे. वीरभूम, बांकुड़ा, सिंहभूम, मुंगेर व पूर्णिया से फौज भेजी गयी. दानापुर से भी विशेष फौज बुलायी गयी. यह जानकारी हुई तो सिदो ने भी योजनाबद्ध तरीके से लड़ाई लड़ने की योजना बनायी. ऐसे में अंग्रेजों को मार्शल लॉ लगाना पड़ा. 25 हजार फौजों को इलाके में रख दिया गया. ऐसे में ज्यादा लंबा संघर्ष संताल नहीं कर सके.

संतालकाटा का पूरा पानी लाल हो गया था

वर्तमान दुमका जिले के रानीश्वर प्रखंड में वीरभूम जिले की सीमा पर स्थित एक तालाब आज भी संताल हूल में अंग्रेजों के दमनकारी नीति का उदाहरण है, जो संतालकाटा के नाम से जाना जाता है. इस संतालकाटा में कई संतालों के रक्तरंजित शव गिरे पड़े थे और तालाब का पूरा पानी रक्त से तब लाल हो गया था. यही वजह थी कि तालाब का नाम संतालकाटा पड़ गया था. इस संताल विद्रोह में 15 हजार से अधिक संतालों ने अपने प्राण गंवायें, पर झुकना मंजूर नहीं किया. आखिरकार ईस्ट इंडिया कंपनी को ही अपनी नीति बदलनी पड़ी. अधिनियम बनाना पड़ा. नन रेगुलेशन जिला के तौर पर संताल परगना का गठन करना पड़ा. मांझी-परगनैत को पुलिस की शक्तियां प्रदान की गयीं.

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