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लीड :: आजादी 78 साल बीतने के बाद पक्की सड़क नसीब नहीं

काठीकुंड प्रखंड की बड़तल्ला पंचायत स्थित शिखरपाड़ा और खिलौड़ी गांव के ग्रामीणों का. प्रखंड मुख्यालय से तकरीबन 25 किलोमीटर दूर पहाड़िया व आदिवासी बहुल इस गांव में 170 से ज्यादा परिवार निवास करते हैं.

उपेक्षा. शिखरपाड़ा व खिलौड़ी के आदिवासी ग्रामीणों की पथरीली राहों पर घिस रही जिंदगी

प्रतिनिधि, काठीकुंड

पहाड़िया व आदिवासी समुदाय के उत्थान का वादा दावा कर न जाने झारखंड में अब तक कितनी सरकारें आयी और कितनी सरकारें गयी. इनकी स्थिति सुधारने, इनके हालात बदलने का ख्वाब दिखाकर कइयों ने अपना हित साधा. अपनी कामकाजी दुनिया में व्यस्त रहने वाले इन लोगों के पास इतना समय नहीं होता कि वे अपनी मूलभूत समस्याओं के लिए आवाज उठायें. नतीजतन इनकी समस्याओं के निराकरण में वर्षों बरस बीत जाते हैं. जिंदगियां खत्म हो जाती है. पर समस्याएं खत्म नहीं होती. कुछ ऐसा ही हाल है काठीकुंड प्रखंड की बड़तल्ला पंचायत स्थित शिखरपाड़ा और खिलौड़ी गांव के ग्रामीणों का. प्रखंड मुख्यालय से तकरीबन 25 किलोमीटर दूर पहाड़िया व आदिवासी बहुल इस गांव में 170 से ज्यादा परिवार निवास करते हैं. गांव चार टोलों स्कूल टोला, प्रधान टोला, मांझी टोला व पकड़ीपाड़ा में बंटा है. प्रत्येक टोला तकरीबन एक-एक किलोमीटर की दूरी पर स्थित है. दिहाड़ी मजदूरी और खेती कर ग्रामीण अपना जीवन-यापन करते हैं. इन दो गांव के ग्रामीणों को दशकों से सड़क न होने का दंश झेलना पड़ रहा है. पहाड़ों पर बसे यहां के ग्रामीणों के लिए पक्की सड़क तो जैसे सपने के समान है. पथरीले व बेहद जोखिम भरे इन रास्तों से हर रोज ग्रामीणों को दो चार होना पड़ता है. यहां के लोगों के लिए पहाड़ों के नीचे बसे बरमसिया गांव से होकर प्रखंड मुख्यालय जाने का रास्ता 7 किलोमीटर कम पड़ता है. लेकिन रास्ता जोखिम भरा होने के कारण लोग मजबूरन 25 किलोमीटर की दूरी वाला रास्ता तय करते है. सड़क केवल आवाजाही नहीं बल्कि कई समस्याओं का कारण बनी हुई है. सड़क के अभाव में विकास योजनाओं का लाभ ग्रामीणों को निरंतर और समुचित रूप से नहीं मिल पा रहा है.

खाट के सहारे मरीज को लाते हैं मुख्य सड़क पर

स्वास्थ्य संबंधी गंभीर समस्या आने पर लोग मरीज को खाट पर टांग कर कई किलोमीटर दूर मुख्य पथ तक ले जाते है. दिहाड़ी मजदूरी और पहाड़ी कृषि करने वाले इन ग्रामीणों का दर्द तब और ज्यादा बढ़ जाता है, जब बारिश का मौसम रहता है. एक ओर बारिश जहां कृषि के लिहाज से इनके चेहरे पर मुस्कान लाती है. वहीं एक ऐसा मंजर भी दिखाती है, जिस कारण ग्रामीणों का कई कई हफ्तों तक गांव से निकलना तक मुश्किल हो जाता है. डिजिटलाइजेशन के युग में पहाड़ों पर बसे पहाड़िया और आदिवासी समुदाय बहुल इन गांव तक पक्की सड़क का न पहुंच पाना अपने आप में सवालिया निशान है. आजादी के 78 साल बीतने के बाद भी इन मूलवासियों का उपेक्षित रहना निराशाजनक है.

क्या कहते हैं ग्रामीण

सड़क नहीं होने के कारण काफी कुछ झेलनी पड़ती है. स्थिति यहां तक आ जाती है कि स्वास्थ्य समस्या के दौरान आपात स्थिति में समय पर इलाज नहीं हो पाने के कारण जान से हाथ धोना पड़ जाता है.

देवनाथ देहरी, खिलौड़ी

शर्मसार होना पड़ता है, जब किसी शादी ब्याह या सामाजिक आयोजन में भाग लेने दूसरे गांव के ग्रामीण हमारे गांव पहुंचते हैं. सड़क नहीं होने के कारण रिश्तेदार व संबंधी जल्दी गांव आना ही नहीं चाहते.

सोनू देहरी, शिखरपाड़ा

हमारा गांव चार टोलाें में बंटा है. सभी टोला एक-दूसरे से काफी दूरी पर स्थित है. एक तो पक्की सड़क की सुविधा नहीं, उस पर भी टोलों के बीच दूरी होने के कारण आंगनबाड़ी व स्कूल जाने में परेशानी होती है.

कालेश्वर मुर्मू, शिखरपाड़ा

विकास का पहला पैमाना यानि सड़क नहीं होने के कारण हमारे यहां विकास योजनाओं की बात करना ही बेईमानी होगी. इक्का-दुक्का विकास योजनाएं आती है. वो भी सड़क के अभाव में पूरी नहीं हो पाती है.

दिनेश्वर देहरी

जिला परिषद अध्यक्ष जॉयस बेसरा व पूर्व उपायुक्त रविशंकर शुक्ला के अथक प्रयासों से गांव के दो टोला में पेयजलापूर्ति बहाल हुई है. जिन टोला में बिजली है. वहां पानी नहीं, जहां पानी है, वहां बिजली नहीं है.

विश्वनाथ देहरी, शिखरपाड़ा फोटो

शिखरपाड़ा गांव का जानलेवा पथरीला रास्ता.

जोखिम भरे रास्ते पर जलावन लकड़ी ले जाने की जद्दोजहद करता युवक.

अपनी समस्याएं बताते ग्रामीण.

डिस्क्लेमर: यह प्रभात खबर समाचार पत्र की ऑटोमेटेड न्यूज फीड है. इसे प्रभात खबर डॉट कॉम की टीम ने संपादित नहीं किया है

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