अभिषेक, काठीकुंड. क्या बताएं साहेब! शाम ढलते ही पूरा गांव में अंधेरा छा जाता है. सड़क नहीं होने के कारण शर्मिंदगी का सामना करना पड़ता है. रिश्तेदारों को साफ पानी नहीं पिला पाते. यह पीड़ा है जिले के काठीकुंड प्रखंड स्थित बड़तल्ला पंचायत के खिलौड़ी गांव के पहाड़िया बहुल चुनरभुई व बासकंदरी टोला के ग्रामीणों की. डिजिटलाइजेशन के इस दौर में भी किसी गांव का विकास से इस कदर कटा हुआ होना अपने आप में सवालिया निशान पैदा करता है. इन दोनों टोला में 60 से ज्यादा परिवार की सैकड़ों की आबादी निवास करती है. शुद्ध पेयजल, सड़क और बिजली आज तक दोनों टोला में नहीं पहुंची है. ग्रामीणों को दर्द इस बात का है कि उनकी समस्याओं की जानकारी होने के बावजूद न तो जनप्रतिनिधि और न ही प्रशासन कोई पहल कर रही है. आजादी के कई दशक बीतने व झारखंड निर्माण के इतने वर्षों के बाद भी यहां के ग्रामीण आज भी ढिबरी युग में जी रहे हैं. दोनों टोला में बिजली का एक अदद पोल खंभा तक नहीं दिखता है. ग्रामीण मोबाइल और टॉर्च दूसरे गांव जाकर या सोलर से किसी प्रकार चार्ज करते हैं. पढ़ाई करने वाले स्कूली बच्चे सोलर से बैटरी चार्ज कर एलएडी टॉर्च लाइट जला कर पढ़ते हैं. कम रोशनी के कारण बच्चों की आंखों में भी प्रतिकूल असर पड़ रहा है. बात सड़क की करें तो गांव तक पहुंचने के पगडंडीनुमा रास्ते में बड़े-बड़े पत्थर हर रोज ग्रामीणों के सब्र का इम्तिहान लेते हैं. बड़ी मुश्किल से दोपहिया वाहन गांव तक पहुंच पाती है. ग्रामीण सोनेलाल देहरी, परमेश्वर देहरी, युधिष्ठिर देहरी, बुधन देहरी, बसु देहरी, देसाई देहरी, सीमा देवी, संगीता देवी, फुलमनी महारानी, लखन कुमार देहरी, रासमुनी रानी, लक्ष्मी रानी, बुधनी महारानी, फुलमनी महारानी, संगीता देवी, अक्लो देहरी, लखन कुमार देहरी सहित अन्य ग्रामीणों ने बताया कि सड़क नहीं होने का दर्द हम लोगों से बेहतर कोई नहीं समझ सकता. सड़क नहीं होने का दंश ग्रामीणों को इस कदर झेलना पड़ता है कि गंभीर स्वास्थ्य समस्या के वक्त मरीज को अगर अस्पताल ले जाना हो तो मरीज को खाट पर लाद कर डेढ़ से दो किलोमीटर दूर मुख्य सड़क तक ले जाना ही अंतिम विकल्प होता है. शादी ब्याह जैसे मौकों पर भी ग्रामीणों को शर्मिंदगी झेलनी पड़ती है. सैकड़ों की आबादी पानी की हर जरूरत के लिए एकमात्र कुएं पर निर्भर है. वो कुआं भी बढ़ती गर्मी के साथ सूखता जाता है. एकमात्र कुएं से ग्रामीणों के लिए पानी की हर जरूरत पूरी नहीं हो पाती. बहरहाल, बड़ा सवाल यह होगा कि आजादी के अमृतकाल में भी मूलभूत समस्याओं के लिए तरस रहे यहां के ग्रामीणों को आखिर कब इन परेशानियों से निजात मिल पायेगा.
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