East Singhbhum News : आसछे मोकोर आर दू दिन सोबुर कोर…

टुसू के रंग में रंगे गांव, मूर्तिकार दे रहे टुसू प्रतिमा को अंतिम रूप, गांवों में गूंजने लगे टुसू के गीत, पीठा बनाने की तैयारी में जुटे लोग

By Prabhat Khabar News Desk | January 12, 2025 12:17 AM

गालूडीह. टुसू पर्व के रंग में गांव रंगने लगा है. 14 जनवरी को टुसू पर्व मनाया जायेगा. 13 जनवरी को बाउड़ी मनेगी. गांवो में लोक गीत आसछे मोकोर आर दू दिन सोबुर कोर के गीत गूंजने लगे हैं. हालांकि अब पहले जैसा टुसू पर्व को लेकर उत्साह नहीं दिखता है. ना ही लोक संस्कृति की झलक दिखती है. पहले टुसू पर्व पर 15 दिन आगे से लोग गीत गाते थे. घर दुआर सजाते थे. पर अब वह उमंग व उत्साह नहीं दिखता है. लोग बस रस्म भर निभाते हैं. ढेंकी की आवाज अब सुनायी नहीं देती. अब धीरे-धीरे पुरानी संस्कृति विलुप्त होते जा रही है. गांव के कुछ बड़े-बुर्जुग अभी अपनी परंपरा का जरूर निर्वहन कर रहे हैं. टुसू पर्व आदिवासी और कुड़मी समाज का सबसे बड़ा त्योहार है. इस समाज के लोग आज भी अपनी संस्कृति और परंपरा के तहत इस पर्व को मनाते हैं.

पहले सैकड़ों मूर्ति बनाते थे, पर अब दर्जनों में आ गये

गालूडीह के उपरडांगा में रहने वाले मूर्तिकार कंगला दलाई टुसू प्रतिमा को अंतिम रूप देने में जुटे हैं. वे कहते हैं अब पहले जैसा टुसू मूर्ति की मांग नहीं रही. 80 से 90 दशक तक सैकडों मूर्तियां बनाते थे, पर अब दर्जन भर मूर्तियां बनाते हैं वह भी नहीं बिकती. पर्व से पहले मूर्तियां बुक हो जाती थी, पर अब ऐसा नहीं है. महंगाई की मार सबपर पड़ी है. मिट्टी, कपड़े, बांस, पुआल के दाम बढ़ जाने से अब मूर्ति के वाजिब दाम नहीं मिलते. इधर बाजार में रेडीमेड मूर्तियों के आ जाने से मूर्तिकारों को उचित मुनाफा नहीं होता. मूर्तिकार विकास दलाई और बंकेश दलाई ने बताया कि दो पीढ़ी से टुसू बना रहे हैं. पहले की अपेक्षा वर्तमान में मूर्तिकारों की स्थिति दयनीय है. हालांकि पुरानी परंपरा को आज आगे बढ़ाने का काम कर रहे हैं. पर लागत और मेहनत के अनुसार मुनाफा नहीं मिल पाता है. कभी-कभी ऐसा भी होता है कि मूर्ति निर्माण के बाद उसकी बिक्री नहीं हो पाती है. इस कारण अगले वर्ष तक मूर्ति बेचने का इंतजार करना पड़ता है. इस दौरान कई मूर्तियां नष्ट हो जाती हैं. इससे नुकसान उठाना पड़ता है. इस वर्ष टुसू और सरस्वती प्रतिमा मिलाकर सौ मूर्ति बनाने का लक्ष्य है. उन्होंने बताया कि पूरे वर्ष मूर्तिकारों को काम नहीं मिलता है. जिस कारण परिवार के जीवनयापन के लिए दूसरा काम भी करना पड़ता है.

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