Exclusive: झारखंड की आदिवासी बोलियां अब नहीं होंगी विलुप्त, कोरबा समेत कई बोली अब लिखी-पढ़ी भी जाएगी

झारखंड की कई जनजाति और आदिम जनजातियों की बोली अब विलुप्त नहीं होगी. रांची के डाॅ रामदयाल मुंडा शोध संस्थान ने आदिवासियों की विलुप्त होती बोलियों को सहेजने के लिए प्रयास शुरू किए हैं और इसके तहत साहित्य सृजन का काम भी हो रहा है. इन बोलियों का व्याकरण बना कर इन्हे आने वाले कई वर्षों के लिए सहेजा जा रहा है.

By Neha Singh | April 10, 2024 11:38 AM

झारखंड की कोरबा बोली अब नहीं मरेगी. इसे बोलने वाले अब मात्र छह हजार लोग बच गए हैं. इसकी टूटती सांसों की डोर को थाम लिया गया है. आगे यह जिदा ही नहीं रहेगी बल्कि लिखी-पढ़ी भी जाएगी. इसे भाषा की पहचान भी मिलेगी और व्याकरण के स्वरूप से भी सजाया जाएगा. रांची के डॉ. रामदयाल मुंडा जनजातीय कल्याण शोध संस्थान ने इस दिशा में पहल की है. इसे बचाने के लिए पुरनियों के जेहन में मौखिक परंपरा से प्राप्त ज्ञान को पहली बार लिखा जा रहा है. इस बोली की कोई लिपि नहीं है. इसलिए इसे देवनागरी लिपि में ही लिखा जा रहा है, ताकि सैकड़ों सालों के अनुभव से प्राप्त ज्ञान को हिंदी के माध्यम से बाहर की दुनिया जान सके.

कोरबा जनजाति की आबादी महज 35 हजार

कोरबा बोली में कोरबा जनजाति के लोग अपने समुदाय में आपसी संवाद करते हैं. 2011 की जनगणना के मुताबिक कोरबा जनजाति की आबादी वैसे तो 35 हजार है, लेकिन कोरबा की नई पीढ़ी इसे छोड़ती जा रही है. समुदाय से बाहर संपर्क स्थापित करने के लिए इन्हें या तो हिंदी बोलनी पड़ती है या दूसरी जनजातीय लिंक भाषाओं का सहारा लेना पड़ता है. कोरबा लोग ज्यादतार गढ़वा, पाकुड़. गोड्डा और कोडरमा जिलों में बसते हैं.

सबर,परहिया और माल पहाड़िया बोलियों को भी बचाने की तैयारी

कोरबा के साथ ही सबर, परहिया और माल पहाड़िया बोलिय़ों को भी बचाने की तैयारी की गई है. सबर आठ हजार लोग, परहिया बोली को 10 हजार लोग और माल पहाड़िया को 25 हजार लोग बोलते हैं. हालांकि इन्हें बोलने वाले समुदाय की आबादी क्रमशः 9688 , 25585 और एक लाख 35 हजार है. परंतु, इन समुदायों के लोग अपनी बोली को धीरे-धीरे छोड़ते जा रहे हैं. सबर लोगों का बहुसंख्यक हिस्सा दुमका, धनबाद, पश्चिम सिंहभूम और सरायकेला-खरसावां जिलों में निवास करता है. इसी तरह परहिया समुदाय के बड़े हिस्से का गढ़वा, लातेहार और पलामू जिलों में वास है. माल पहाड़िया लोग धनबाद, गोड्डा, पाकुड़ और साहेबगंज जिलों में स्थित हैं.

बोली को रोटी से जोड़ने का अभियान

आदिवासी कल्याण शोध संस्थान के निदेशक रणेंद्र कुमार ने कहा कि यह बोलियों को रोटी से जोड़ने का अभियान है, ताकि इनका अस्तित्व बचा रह सके. आदिवासी कल्याण शोध संस्थान की कोशिश है कि जो आदिम जनजातियां खत्म हो रही हैं,उनकी बोलियां बचें. कुमार ने कहा कि अंग्रेजी, हिंदी और कुछ अन्य बड़े पैमाने पर बोली जाने वाली भाषाओं के वर्चस्व के आगे कई बोलियां अब अंतिम सांसें गिन रही हैं. खास तौर पर झारखंड के विशेष रूप से कमजोर जनजातीय समूहों के बीच प्राचीन काल से प्रचलित बोलियां खत्म होती जा रही हैं.

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एक बोली का खत्म होना एक संस्कृति का खत्म होना है

रणेंद्र कुमार ने कहा कि एक बोली महज एक बोली नहीं होती है, यह एक संस्कृति, धरोहर, विज्ञान और अस्मिता को अपने साथ लेकर चलती है. एक बोली का खत्म होना जैसे एक संस्कृति का खत्म होना है। हजारों साल की एक सतत प्रक्रिया का खत्म होना है. ऐसे में लुप्त हो रहीं बोलियों को न बचाया जाए तो हमारी प्राचीनतम संस्कृति की अमूल्य धरोहर खत्म हो जाएगी. इस संस्कृति को बचाने से हमारा प्रयास उस पूरी जनजाति और विज्ञान को बचाने का है. अगर आप किसी चीज को रोटी से जोड़ते हैं तो उसके जिंदा रहने की उम्मीद और वजह दोनों हजारों साल बढ़ जाती है.

बिरजिया, असुर, भूमिज, बिरहोर और मालतों बोलियों में साहित्य

आदिवासी कल्याण शोध संस्थान इससे पहले बिरजिया, भूमिज, असुर, बिरहोर और मालतो भाषा के लिए गद्य-पद्य बना चुका है.इस तरह अब हमेशा के लिए ये बोलियां बचा ली गई और इसी तरह सारी जनजाति और आदिम जनजाति की बोलियों को बचाने के लिए व्याकरण की शुरूआत की जा रही है.

32 आदिवासी समूह, आठ की बोलियां विलुप्ति के कगार पर

झारखंड के 32 आदिवासी समूह में आठ की बोलियां विलुप्त होने के कगार पर है. असुर, बिरहोर, बिरजिया, शबर, पहाड़ी खड़िया, कोरवा, माल पहाड़िया, परहैया, सौरिया पहाड़िया आदिम जनजाति इसी श्रेणी में आती हैं. माल पहाड़िया को छोड़कर अन्य की संख्या हजारों में सिमट गई हैं.

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बोलियां ऐसे होती हैं जिंदा

बोलियों का साहित्य सजाने में लगे सेवानिवृत शिक्षक प्रमोद कुमार शर्मा बताते हैं कि ये प्रक्रिया अपने आप में ही खूबसूरत और चैलेंजिंग है. इसमें हम बोलियों के जानकार लोगों को जानते हैं, समझते हैं, सुनते हैं और उनसे उनकी बोली के मूल रूप को जानते हैं. बोली के जानकार को व्याकरण बता कर मोडिफाइड तरीके से उसे सीखते हैं और उनकी बोली में गद्य-पद्य को शामिल कर उसे व्याकरण का रूप देते हैं ताकि इसे पढ़ा-लिखा जा सके. व्याकरण के आधार पर लिख कर और बोल कर बोली तैयार करते हैं. भाषा का मूल रूप तो मौखिक है. मौखिक रूप तो इन संकटग्रस्त जनजातियों के बीच चल रहा है. पर इन समुदायों के बच्चे बाहर निकल रहे हैं. हिन्दी स्कूलों में पढ़ रहे हैं. बाहरी संपर्क में आ रहे हैं तो मूल भाषा खत्म हो रही है..किंतु बोलियों को बचाने की लड़ाई अभी लंबी है.

बोली में स्पष्टता के लिए व्याकरण जरूरी

आदिम जनजाति की बोली का व्याकरण लिख रहे एक विशेषज्ञ ने बताया कि बोलियों पर जबतक व्याकरण नहींं हो तो उनकी स्पष्टता नहीं होती. पुलटू श्री शबर ने बताया कि हम तीन जन यहां आए हैं. पूर्वी सिंहभूम व आसपास के जिलों से हैं.उमा दादा भी उनमें शामिल हैं. भाषा की जानकारी के लिए व शुद्ध बनाने का काम कर रहीं हैं, ताकि हमारी भाषा लुप्त न हो.

दुमका व लातेहार से भी पहुंचे लोग

परहैया भाषा के व्याकरण के लिए लातेहार जिले से आए छात्र काम कर रहे हैं. उन्होंने बताया कि दुमका जिले से भी आदिम जनजाति की बोली का व्याकरण तैयार करने में मदद के लिए जगन्नाथ गिरि व कन्हाई गिरि आए हैं,हमारी भाषा तीन चार जिलों में बोली जाती है.

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