डुमरी. डुमरी स्थित सार्वजनिक दुर्गा मंदिर का इतिहास बहुत ही पुराना व अनूठा है. इस मंदिर में 225 वर्षों से पूजा हो रही है. यहां की पूजा एक ओर जहां सांप्रदायिक सौहार्द का अनुपम उदाहरण है, वहीं दूसरी ओर राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के अहिंसक आंदोलन से भी जुड़ा है. बताया जाता है कि डुमरी थाना के समीप स्थित दुर्गा मंदिर में पूजा वर्ष 1822 में शुरू हुई थी. डुमरी के तत्कालीन जमींदार डिहू भगत ने थाना के समीप स्थित अपनी जमीन के खपरैल मकान में दुर्गा पूजा की शुरुआत की थी. उस समय तोपचांची और नावाडीह में दुर्गा पूजा नहीं होती थी. इसके कारण इन प्रखंडों से लोग पैदल और बैलगाड़ी से यहां पूजा करने आते थे. डुमरी में दुर्गा पूजा गंगा जमुनी तहजीब को प्रदर्शित करती है. डुमरी थाना के समीप स्थित दुर्गा मंदिर और मस्जिद के बीच महज एक घर का फासला है.
कभी भी दोनों समुदाय में नहीं आया खटास
225 वर्ष से मंदिर में भजन और मस्जिद में अजान होते आ रहा है. लेकिन, कभी भी डुमरी में दोनों समुदाय के बीच रिश्ते में कोई खटास नहीं आयी. दोनों समुदाय के लोग एक-दूसरे की भावना का सम्मान करते हैं. स्थानीय लोग को सांप्रदायिक सौहार्द्र की परंपरा की विरासत से मिली है. इसके पीछे भी एक गौरवशाली इतिहास है. डुमरी के तत्कालीन जमींदार डिहू भगत ने पूजा शुरू की. कुछ वर्षों के बाद पूजा की जिम्मेवारी स्थानीय लोगों को दे दी. वर्ष 1867 में डुमरी थाना के तत्कालीन दारोगा निसार अहमद हुसैन ने जनता के सहयोग से दुर्गा मंदिर के खपरैल भवन को पक्का मंदिर में बदल दिया. यहीं से डुमरी में सांप्रदायिक सौहार्द्र की अनुपम परंपरा शुरू हुई. बाद में स्थानीय लोग ने आर्थिक सहयोग कर दारोगा निसार हुसैन के नेतृत्व में दुर्गा मंदिर के बगल में मस्जिद का निर्माण कराया. मस्जिद के लिए जमीन की व्यवस्था जमींदार परिवार ने ही की थी. उस समय से आज तक यह गौरवशाली परंपरा डारी है.गांधीजी से प्रेरित होकर बलि प्रथा पर लगा विराम
यहां पहले भैंस और बाद में बकरे की बलि दी जाने लगी. लेकिन, महात्मा गांधी के अहिंसक सत्याग्रह के कारण डुमरी में बलि प्रधान पूजा का स्थान पर वैष्णव पद्धति से पूजा की मांग उठने लगी. लेकिन, कोई पूजा पद्धति में बदलाव के लिए आगे नहीं बढ़ रहा था. मान्यता है कि इस समय जमींदार परिवार की एक महिला सदस्य को सपने में दुर्गा माता ने बलि प्रधान पूजा के स्थान पर वैष्णवी पूजा करने को कहा इसके बाद जमीदार सहित स्थानीय लोग ने पूजा पद्धति बदलने का फैसला लिया. स्थानीय पंडितों ने पूजा करने से इंकार कर दिया. इसके बाद चंदनकियारी से पंडित बुलाकर मंदिर में वैष्णव पद्धति से पूजा शुरू की गयी. यह परंपरा आज भी जारी है और आज भी चंदनकियारी के पंडित यहां पूजा करते हैं.डिस्क्लेमर: यह प्रभात खबर समाचार पत्र की ऑटोमेटेड न्यूज फीड है. इसे प्रभात खबर डॉट कॉम की टीम ने संपादित नहीं किया है