फागुन का महीना आ गया है, लेकिन गांवों में होली का पारंपरिक उत्साह नजर नहीं आ रहा है. 1995 के दशक से पहले फागुन माह आते ही जहां गांव की गलियां फगुआ गीतों से गुंजायमान रहती थीं, तो वहीं अब सन्नाटा पसरा है. होली का त्योहार सामाजिक समरसता का प्रतीक रहा है. अब जाति और समूहों के दायरों में वह सिमटता जा रहा है. पहले शहरों में भी ढोल-मजीरे के साथ फगुआ गीत गाए जाते थे. आज न सिर्फ शहरों में, बल्कि गांवों में भी यह परंपरा लुप्त होती जा रही है. इस बाबत जमुआ थाना क्षेत्र बाटी गांव के 65 वर्षीय अवधेश राय ने बताया कि पहले होली एक महीने तक मनाई जाती थी. हर गांव में ढोल और मंजीरे की आवाज गूंजती थी. प्रेम और सौहार्द का यह त्योहार दुश्मनों को भी गले लगा देता था. इसमें आपसी तालमेल की कमी, परंपराओं की कद्र न करना और गांवों से बढ़ते पलायन ने इस परंपरा को कमजोर कर दिया है. कहा कि हमलोग के जमाने में होलिका दहन की रात जो लोग होलिका दहन करने जाते थे, वह घर लौटकर नहीं आते थे. वे रात भर कबड्डी खेलते थे. सुबह एक टोली होलिका दहन की राख उठाते हुए फगुवा का गीत गाते लोगों को रंग व राख लगाती थी. आज की युवा पीढ़ी को फगुआ गीतों के बोल तक याद नहीं हैं. दुर्भाग्य से अब इन मधुर गीतों की जगह फूहड़ गीतों ने ले ली है.
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