Giridih News :प्रकृति व पशु प्रेम का प्रतीक है सोहराय पर्व
Giridih News :धान की कटाई के बाद प्रकृति का आभार और खेती में मदद करने वाले पशुओं को उनकी मेहनत का उपहार देने के लिए प्रतिवर्ष पौष मास में पशुधन की पूजा लक्ष्मी रुप में की जाती है. इसे सोहराय के नाम से जाना जाता है.
पांच दिवसीय लोक पर्व को ले आदिवासी बहुल इलाके में उत्साह का माहौल
धान की कटाई के बाद प्रकृति का आभार और खेती में मदद करने वाले पशुओं को उनकी मेहनत का उपहार देने के लिए प्रतिवर्ष पौष मास में पशुधन की पूजा लक्ष्मी रुप में की जाती है. इसे सोहराय के नाम से जाना जाता है. प्रकृति के उपासक आदिवासी (संताल) समाज में प्रचलित सोहराय एक ऐसा लोकपर्व है जो एक ओर प्रकृति से जुड़ा है तो दूसरी ओर किसानों के मित्र माने जानेवाले पशुओं से. गांडेय प्रखंड के पिड़ पारगाना रमेश मुर्मू ने सोहराय पर विशेष चर्चा की. पेश है सोहराय से जुड़ी मान्यता पर आधारित समशुल अंसारी की रिपोर्ट.संताल का सबसे बड़ा पर्व
गांडेय प्रखंड अंतर्गत धर्मपुर पिड़ शिकार दिसाम के पिड़ पारगाना रमेश मुर्मू ने बताया कि सोहराय आदिवासी संताल का सबसे बड़ा पर्व है. यह पर्व खेती-किसानी जुड़ा है, अच्छी पैदावर के लिए इष्ट देव मरांग बुरु को धन्यवाद देने के साथ ही कृषि में सहायता करने वाला गाय बैल को भी पैर धोकर सींग में तेल- सिंदूर लगाकर चुमावड़ा किया जाता है. कहा कि दरअसल यहां के आदिवासी और सदानों का मुख्य पेशा कृषि है. चूंकि कृषि कार्य पशुओं के सहयोग के बिना असंभव है इसलिए गाय, बैल, भैंस, भैसा जैसे जानवरों को पशुधन माना जाता है. इस अवसर पर पशुओं के देवता को गौशाला के कोने में स्थापित किया जाता है और उनकी पूजा की जाती है.
क्या है मान्यता
सोहराय झारखंड की अस्मिता से जुड़ा लोकपर्व है. इस पर्व में गाये जाने वाले गीत यथा माय चुमावे धन धान धरती बहिन चुमावे धेनु गाय…, बन में गरजे बाघ हो अंगना में गरजे अहीर हो…, कुम्हारक दीया तेली घरक तेल धोबी घरक बाती, बर रे दीया सगर राती… आदि गीत पर्व की महत्ता को बयां करता है.
पांच दिनों मनाया जाता है पर्वसोहराय पांच दिवसीय त्योहार है. प्रथम दिन को संताली में उम यानि नहान, दूसरे दिन दाकाय यानि गोहाल पुजा, तीसरे दिन खुंटा़व यानि बरद खुटा, चौथे दिन जाले यानि सोहराय शोभा यात्रा और पांचवे दिन बुढ़ही जाले यानि धन्यवाद ज्ञापन सह सोहराय समाप्ति की घोषणा होती है.सोहराय को लेकर घरों का हो रहा रंग रोगन
आदिवासी बाहुल्य इलाकों में इन दिनों सोहराय की झलक देखने को मिल रही है. इसकी तैयारियों को लेकर आदिवासी समाज के लोगों ने अपने घरों को सजाना शुरु कर दिया है. ग्रामीण मिट्टी की दीवारों को मिट्टी से बने अलग-अलग रंगों से मनमोहक कलाकृतियां बनाते हैं. जिसे देखकर ऐसा लगता है कि किसी बड़े कलाकार ने इन्हें सजाया है.ढोल-मांदर की बिक्री हुई तेज
सोहराय को ले ढोल-मांदर, मोर पंख आदि की बिक्री बढ़ गयी है. ढोल, मांदर, डंका व ढाक आदि का निर्माण करने वाले डीलो रविदास ने बताया कि कई लोगों ने ढोल-मांदर बनाने का आर्डर दिया है. किसी ने मरम्मत तो किसी ने रस्सी बदलने का भी कार्य दिया है. वहीं ताराटांड़ क्षेत्र के मटकुरिया के कुटीर व्यवसायी अशोक दास, रुपेश दास आदि ने बताया कि वर्तमान में 5 हजार में मांदर, झुमरिया मांदर व ढोल ढाक आदि की बिक्री होती है. कहा कि सोहराय व होली में लोग घर आकर सामानों की खरीद करते हैं. जबकि ऑफ सीजन में वे करमदहा व झुमरिया मेला में स्वयं दुकान लगाते हैं.डिस्क्लेमर: यह प्रभात खबर समाचार पत्र की ऑटोमेटेड न्यूज फीड है. इसे प्रभात खबर डॉट कॉम की टीम ने संपादित नहीं किया है