झारखंड के दूसरे सबसे बड़ा त्योहार के रूप में करमा पर्व मनाया जाता है. करमा पर्व गुरुवार से शुरू हो गया है, जो लगातार एकादशी तिथि तक प्रत्येक दिन करमा करने वाली व्रतियों में खास कर युवतियां अपने भाई की लंबी उम्र की कामना करते हुए पर्व मनायेंगी. गोड्डा के साथ संताल परगना के साथ पूरे झारखंड में इस पर्व का अपना अलग महत्व है. करमा पर्व केवल भाई-बहन के प्रेम के रिश्ते को ही नहीं, बल्कि प्रकृति पूजा के साथ-साथ पर्यावरण को बचाने के तौर पर एक बड़ा धार्मिक अनुष्ठान के रूप में देखा जाता है.
करमा पर्व क्यों है खास
करमा पर्व का आरंभ होने के क्रम में नदी के बालू को बांस की डाली में भरकर युवतियां अपने घर लाती हैं. बड़े नियम व संयम के साथ बालू लाकर उसमें कई प्रकार के अनाज का बीज जिसमें खास तौर पर गेहूं, जौ, कुर्थी, अरहर, मकई, बाजरा, घंघरा समेत 12 से 15 ऐसे अनाज को बालू में बोने का काम करती है. अब बोये हुए बीज से भरी डाली को जावा की संज्ञा देते हुए हर शाम उसके चारो ओर गीत गाकर नाचती हैं. यह परंपरा लगातार सात दिनों तक चलती है. एकादशी तिथि को सुबह के वक्त गांव में सार्वजनिक या फिर निजी स्थान पर गड्ढ़ा किया जाता है. उक्त गड्डे के बीच करम डाल यानि मुरगा नामक पेड़ की डाली को गाड़ कर उसके समीप जावा डाली (बीज अब पौधे के रूप में तैयार हो गये हैं) रखकर दीपक जलाकर पुआ-पकवान आदि के साथ पूजती हैं. रंग-बिरंगे परिधान में युवतियां उपवास में रहकर पूजा करती है. गीत गाने के साथ ही नृत्य व करमा पर्व की कथा का श्रवण करती हैं. पूजा के बाद उपवास करने वाली व्रती जल आदि पीकर फलाहार करती हैं. दूसरे दिन सुबह के वक्त करम डाल को पास के बांध व नदी में जाकर विसर्जित करने के बाद घर आकर बासी भात खाकर व्रत तोड़ती है. इसे परंपरा पर्व बताया जाता है. इसको लेकर कुरमी विकास संगठन से जुड़े नरेंद्र कुमार महतो ने बताया कि करमा पर्व को लेकर खास बात यह है कि इसका सीधा जुड़ाव भाई व बहन से है. बहन अपने भाई की लंबी उम्र की कामना करने को लेकर सात दिनों तक पूजा-अर्चना करती है. बताया कि इस बार 14 सितंबर को करमा पर्व का समापन किया जाना है. इधर कुरमी नेता बालमुकुंद महतो के अनुसार करमा पर्व ना केवल भाई बहन, बल्कि प्रकृति प्रेम का भी पर्व है. इस पर्व की विशेषता है कि सदियों से झारखंडी समाज के लोग पर्यावरण को बचाने पेड़-पौधे को बचाने के लिए इसे धार्मिक अनुष्ठान से जोड़ने का काम किया है. करमा पर्व में भी एक तरफ जहां पेड़ व पौधे की पूजा की जाती है. वहीं किसान व किसानी से जुड़े बीज तथा उसके अंकुरण की भी जांच आराम से की जाती है. यह पर्व तभी मनाया जाता है, जब काश (कांसी) के पौधे में सफेद फूल लग जाते हैं. अब धान का पौधा फूटने की स्थिति में आने लगता है. दूसरे फसल लगाने के समय की तैयारी भी होती है. कहा कि करमा के गीत में भाई-बहन के बीच प्रेम को आंचलिक गीतों में भी रखा गया है. कांसी फूला फूलेय गेलेय, आशा मोरा लासगी गेलेंय, कबैय आतेय भइयां, आशा हमर लागी गेलेंय…मतलब की भाई के इंतजार में खासकर ससुराल में रहने वाली बहन भी कर रही है. करमा पर्व आने की दस्तक कांसी के फूल से पता चल गया है. उसे उसके भाई का इंतजार है. इधर कुड़मी विकास मोर्चा के दिनेश महतो बताते हैं कि पांरपरिक झुमर पद्मश्री डॉ रामदयाल मुंडा द्वारा रचित है, जिसमें देहाे, देहो करम आशीष भइयां हमर जियतय लाखों बरिस…को अपने गीत में गाकर नृत्य करती हैं.
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