Jharkhand News: 1971 में हुए भारत-पाक युद्ध में झारखंड के गुमला जिले के बम्हनी गांव निवासी सूबेदार मेजर सहदेव महतो शामिल थे. युद्ध में उन्होंने न केवल सेना के जवानों तक गोला-बारूद पहुंचाने का काम किया था, बल्कि भारतीय सेना के लिए आने वाली मदद के रास्ते की अड़चनों को भी दूर करने का काम किया था. सहदेव महतो ने आठ मार्च 1960 से 1988 तक सेना में रहकर देश को अपनी सेवा दी है. वे बतातें हैं कि आठ मार्च 1960 को आर्मी सर्विस कोर में उनकी बहाली हुई थी. बहाली के बाद उन्होंने बेंगलुरु के बेसिक प्रशिक्षण केंद्र में एक वर्ष तक प्रशिक्षण लिया था. प्रशिक्षण पूरी करने के बाद उनकी पहली पोस्टिंग 1961 में पठानकोट में हुई थी.
मिलिट्री में चयन होने के बाद 1964 में सिलीगुड़ी नॉर्थ बंगाल में इन्होंने योगदान दिया था. वे सिलीगुड़ी में कार्यरत ही थे कि 1965 में भारत-पाक का पहला युद्ध हुआ था. उस समय उन्हें श्रीनगर बारामुल्ला में पोस्टिंग दी गयी थी. वहां तीन वर्षों तक सेवा देने के बाद 1968 में उनकी पोस्टिंग कारगिल में हुई थी. कारगिल के बाद 1970 में मेघालय में बतौर नायक के रूप में पोस्टिंग हुई. उन्होंने बताया कि मेघालय में सेवा दे ही रहे थे कि 1971 में भारत-पाक के बीच छद्म भेष (गोरिल्ला युद्ध) में युद्ध शुरू हो गया था. युद्ध शुरू होने के बाद हमारी पूरी बटालियन को अखनौर जम्मू भेज दिया गया. तीन माह तक अखनौर में रहने के बाद बटालियन को सेना कैंप जाने का निर्देश मिला. उस समय युद्ध की तैयारियां चल रही थीं.
पूरी बटालियन अखनौर से निकली और सेना कैंप की ओर बढ़ने लगी. चूंकि सेना कैंप पहुंचने में कई दिन लगते थे. इसलिए बॉर्डर से सटे जोड़िया गांव पहुचंने पर रात होने के कारण गांव में ही कैंप लगाने लगे. सहदेव महतो ने बताया कि उस समय वे सेना में नायक थे. नायक की जिम्मेवारी गोला-बारूद सहित अन्य हथियारों की देखरेख करनी थी. जवान गांव में जब कैंप लगा रहे थे. उस समय वे हथियार वाली गाड़ी में थे. इसी बीच रात लगभग आठ बजे सूचना मिली कि लड़ाई तेज हो गयी है. गाड़ी से बाहर निकले तो उन्होंने देखा कि बॉर्डर दहक रहा था. गोला-बारूद बादल की तरह गरज रहे थे. इस बीच बटालियन ने भी मोर्चा संभाल लिया था.
अहले सुबह दुश्मनों का फाइटर प्लेन उनके सिर के ऊपर से गुजरा और गोला गिराते हुए निकल गया. दुश्मनों के फाइटर प्लेन दिनभर आते-जाते रहे और गोला-बारूद गिराते रहे. हमारी ओर से भी प्लेन को निशाना बनाया जा रहा था. यह लड़ाई तीन दिनों (तीन दिसंबर से पांच दिसंबर) तक चली. छह दिसंबर को पता चला कि जवानों के पास गोला-बारूद कम हो गया है. संपर्क भी कट गया है. सहदेव ने बताया कि उन्हें प्लानवाला में हथियार पहुंचाने का निर्देश मिला. इस पर वे वाहन चालक के साथ जवानों तक हथियार पहुंचाने प्लानवाला की ओर निकल पड़े. वहां हथियार देने के बाद जब वापस अपने कैंप लौट रहे थे तो रास्ते में पड़ने वाला नाला के पुल पर दूर से ही एक गोला दिखा. गोला की लाइट जल रही थी. गोला देख चालक वाहन को नाला से पार करने में डरने लगा.
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सहदेव ने बताया कि उन्होंने चालक का हौसला बढ़ाया और खुद गोला के समीप लगभग 10 गज की दूरी तक गये और एक पत्थर से गोला पर निशाना लगाया. पत्थर लगने के कारण गोला का मुंह दूसरी ओर हो गया. सहदेव ने बताया कि उसी रास्ते से भारतीय सेना के लिए भोजन एवं हथियार लाया जाने वाला था. इसलिए दुश्मन नाला को उड़ाने के प्रयास में थे. ईश्वर भी चाहते थे कि भोजन एवं हथियार जवानों तक पहुंचे. इसलिए प्लानवाला में गोला-बारूद की कमी हो गयी थी और जब वे वहां से गोला-बारूद पहुंचाकर वापस लौट रहे थे. तब नाला में रखे गये गोला को हटा दिया और रास्ता साफ कर दिया. देश को काफी लंबे समय तक सेवा देने के बाद 1988 में सूबेदार मेजर के पद से वे सेवानिवृत्त हुए.
सूबेदार मेजर सहदेव महतो ने बताया कि सेवानिवृत्ति के बाद सरकार की ओर से प्रत्येक माह पेंशन मिल रही है. इससे पहले सेवाकाल के दौरान ही 1966 में सरकार की ओर से बम्हनी गांव से बहने वाले नाला के समीप सात एकड़ जमीन दी गयी थी, परंतु स्थानीय ग्रामीणों ने मुझे उस जमीन को नहीं लेने दिया. ग्रामीणों का कहना है कि उक्त नाला से गांव को पानी की आपूर्ति होती है. यदि यहां घर बना दिया जाता है तो नाला खत्म हो जायेगा. जिससे गांव के लोगों को पानी की समस्या हो जायेगी. सहदेव ने बताया कि सरकार को भी इस मामले की जानकारी है, परंतु अब तक सरकार द्वारा कहीं दूसरी जगह पर भी जमीन मुहैया नहीं करायी गयी है.
रिपोर्ट : जगरनाथ पासवान