जब देश गुलामी की जंजीर में जकड़ा था, तब पहली बार गुमला में मुहर्रम का जुलूस वर्ष 1902 ईस्वी को निकाला गया. इसके बाद से प्रतिवर्ष मुहर्रम का जुलूस निकालने की परंपरा शुरू हुई, जो अनवतर जारी है. मुहर्रम जुलूस में हिंदू-मुस्लिम एकता दिखती है. क्योंकि मोहन पासवान हर साल मुहर्रम का ताजिया बनाते हैं. हालांकि गुमला में मुहर्रम की जगह 40वां में जुलूस निकालने की परंपरा रही है.
मुहर्रम में कुछ अखाड़ा के लोग ताजिया बनाते हैं, जिसे शहर व अपने मुहल्ले में घुमाया जाता है. परंतु, ग्रामीण क्षेत्रों में मुहर्रम का पर्व उत्साह से मनाया जाता है. रायडीह, कतरी, बसिया, भरनो, चैनपुर, जारी, सिसई इलाके में मुहर्रम पर्व पर जुलूस निकालने के साथ मेला का आयोजन किया जाता है. इधर, गुमला शहर में कई अखाड़ों ने ताजिया बनायी है.
शहजाद अनवर ने बताया कि जब देश गुलाम था. उस समय से गुमला में मुहर्रम पर्व मनाया जा रहा है. हालांकि कुछ वर्षों से मुहर्रम की जगह 40वां में जुलूस निकालने की परंपरा शुरू की गयी है. उन्होंने बताया कि शुरुआती दिनों में मुहर्रम पर्व पर एसडीओ आवास तक मुहर्रम का जुलूस जाता था. हिंदू के घर में ताजिया बनती है. इसके अलावा मंझर खान, अहमद खान मास्टर, जमील कव्वाल, महमूद जराही द्वारा ताजिया बनायी जाती है.
वहीं स्व मोती केसरी, रघुवीर प्रसाद, पदम साबू के पिता द्वारा मुहर्रम जुलूस का स्वागत किया जाता था. मधुन खलीफा, अकबर अली खलीफा, रज्जाक खलीफा, इब्राहिम फसीही, शमसुद्दीन उस्ताद, अलीमुद्दीन अंसारी, अब्बास खान, रसूल खान, बहादुर कुरैशी, इसराइल इराकी खेल में बेहतर प्रदर्शन करते थे. तासा में सेराज अनवर, इरफान अली, स्व जयाउल हक, हसरत मलिक, बैंजो में मुस्तफा खलीफा, रहमत, बांसुरी में भोमा दादा कलाकार थे. सलीम खान, अब्दुल रसीद, खलील अशरफी, मुस्लिम खान, मो ग्यास जुलूस में प्रदर्शन करते थे.