Jharkhand News: गुमला जिले में अलग-अलग स्थानों पर अलग तरीके से सोहराय पर्व (Sohrai Festival) धूमधाम से मनाया जाता है. प्राचीन काल से चली आ रही परंपरा के अनुसार, खिचड़ी का प्रसाद विशेष रूप से ग्रहण किया जाता है. यह परंपरा आज भी जीवित है. दूसरे दिन ग्रामीण सामूहिक रूप से वनभोज करते हैं. इसके लिए घर-घर से चावल, दाल और सब्जी मांगते हैं.
साेहराय पर्व को लेकर घरों की साफ-सफाई में लगी महिलाएं
गुमला जिला का डुमरी प्रखंड आदिवासी बहुल क्षेत्र है. इसलिए यहां सोहराय महत्वपूर्ण पर्व है. ग्रामीण अपने घरों की साफ-सफाई करने में लग गये हैं. इस संबंध में बुजुर्ग जगरनाथ भगत ने बताया इस पर्व को आदिवासी समाज के लोग काफी धूमधाम के साथ मानते हैं. यह अपने पशुधन को लक्ष्मी के रूप में मनाया जाता है. कार्तिक अमावस्या के दूसरे दिन सभी लोग अपने-अपने घर के पशुधन गाय, बैल, बकरी आदि जानवरों को घर की लक्ष्मी मान कर उनकी पूजा करते हैं. इसके पहले गौशाला में गाय, बैल, बकरी को नहलाकर लाया जाता है. उसके बाद गौशाला में पूजा-पाठ कर लाल मुर्गा की बलि दी जाती है. उस बलि दी गयी मुर्गा का खिचड़ी बनाकर सपरिवार मिलकर खाते हैं.
वनभोज के लिए ग्रामीण घर-घर चावल, दाल और सब्जी मांगते हैं
खिचड़ी खाने के बाद ग्रामीण पशुधन को घर में पकाये गये उड़द, मकई, चना, बोदी दाना, धान, लालकांदा, कोहड़ा, पीठा आदि मिलाकर प्रसाद के रूप में खिलाते हैं. इसके बाद घर के सभी द्वार में पशुओं को चुमाया और टीका लगाया जाता है. उसके बाद सभी पशुधन को माला पहनाया जाता है. साथ ही पशुओं के सींग और सिर पर तेल और टिका लगाते हैं. उसके बाद घरवाले प्रसाद ग्रहण करते हैं. फिर दूसरे दिन गांव वाले सामूहिक रूप से वनभोज करते हैं. इसके लिए घर-घर से चावल, दाल और सब्जी मांगते हैं.
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सिसई : दीवारों में पशु, पक्षी, मोर, मछली, पेड़ पौधे की चित्रकारी हो रही समाप्त
सिसई प्रखंड क्षेत्र में सोहराय पर्व धूमधाम से मनाया जाता है. लेकिन, समय के साथ यह पर्व अब विलुप्त होते जा रही है. बुधेश्वर पहान बताते हैं कि सोहराय पर्व को लेकर एक माह पहले से तैयारी शुरू कर दी जाती थी. घरों एवं आंगनों को साफ कर दीवारों में पशु, पक्षी, मोर मछली, पेड़ पौधे की चित्रकारी की जाती थी. दिवाली के पांच दिन पूर्व से चावल के आटे से गोधूलि के समय आंगन से गौशाला तक पशुओं के पैर के निशान बनाये जाते थे. त्योहार के दिन आंगन में चौठ बनाया जाता था. ग्वाले को नया वस्त्र देकर सम्मानित किया जाता था. पशुओं को नहलाकर श्रृंगार व पूजा किया जाता था. जगह-जगह सोहराय जतरा लगाकर रिश्तेदारों से मिलना-जुलना होता था. शादी-विवाह के लिए रिश्ता तय होता था. लेकिन, धीरे-धीरे यह परंपरा सिमटकर रह गयी है. अब बिरले ही लोग इस परंपरा को अपनाते हैं. घरों की दीवारों में पशु पक्षियों की चित्रकारी कम होती जा रही है.
रिपोर्ट : प्रेम भगत/प्रफुल, डुमरी/सिसई, गुमला.