देखने योग्य है द्वारपाल गुफा एवं शेषनाग फन चट्टानें
मार्च महीने तक पिकनिक मानने वाले एवं पूजा-अर्चना करने वालों की भीड़ बढ़ जाती है.
संजय सागर बड़कागांव. बड़कागांव मुख्य चौक से दक्षिण दिशा की ओर पांच किमी दूर स्थित महोदी पहाड़ में दर्जनों रमणिक स्थल हैं. वैसे तो यहां सालों भर पर्यटक आते रहते हैं, लेकिन नवंबर से लेकर मार्च महीने तक पिकनिक मानने वाले एवं पूजा-अर्चना करने वालों की भीड़ बढ़ जाती है. द्वारपाल गुफा : द्वारपाल गुफा के पास दो विशाल शेषनाग फन आकर के चट्टानें हैं. ये चट्टानें सड़क के दोनों किनारे हैं, जो देखने में तोरण द्वारा की तरह लगते हैं. ऐसा लगता है जैसे दो शेषनाग लोगों का स्वागत कर रहे हैं. इसके अलावा कई प्रकार के शैल दीर्घा हैं. यह शैलचित्र कुछ संदेश के निहितार्थ है. सांकेतिक चित्र लिपि की आकृतियां खींची हुई हैं. चित्र में सफेद रंग का प्रयोग किया गया है. कई शैल दीर्घा में बनाये गये चित्र देखरेख के अभाव में मिटते जा रहे हैं. छत वाला बथानियां पठार : द्वारपाल गुफा के ऊपर बुढ़वा महादेव पहाड़ है. इसे हिल स्टेशन भी कहा जाता है. यहां से कर्णपुरा क्षेत्र के गांवों को देखा जा सकता है. गुफा से तीन किमी दूर चिनारी टांड़ है. इस पठार को बथानिया पठार कहा जाता है. यहां एक बड़ा तालाब है. तालाब के बगल में मध्यकाल का मैदान व मंदिर है. यह पठार मध्य एशिया के पामीर के पठार की छत जैसा दिखता है. इस मैदान से कर्णपुरा क्षेत्र के दर्जनों गांव दिखाई देते हैं. इस पठार में घना जंगल भी है. यहां फलदार पेड़ भी है. विभिन्न किस्म के आम, मोहलन जंगली फल, कानोद, बेर, कटहल, पीआर, कैदों, जामुन आदि फल हैं. इस मैदान में खैरातरी गांव के लोग आज भी खेती करते हैं. खैरातरी निवासी डॉ रघुनंदन प्रसाद ने बताया कि ब्रिटिश काल में अंग्रेजों द्वारा यहां चाय की खेती की जाती थी. बाद में बिहार सरकार के वन विभाग द्वारा यहां खेती की जाने लगी. बुजुर्गों के अनुसार, जहां 1400 ईस्वी में राजा दलेल सिंह का किला था. इसका अवशेष आज भी देखने को मिलता है. इसी मैदान में एक बहुत बड़ी सुरंग है, जो डुमारो गुफा में जाकर मिलती है. हालांकि इस सुरंग में पत्ता और मिट्टी भर गया है. लेकिन पानी इसी सुरंग से गुफा में जाता है. शिव मठ : द्वारपाल गुफा से करीब एक किमी दूर पूरब दिशा में शिव मठ है. कर्णपुरा के राजा द्वारा इस मठ को बनाया गया था. यहां पर राजा का बड़ा बड़ा महल था. किले का निर्माण 1400 इस्वी में किया गया था. देखरेख के अभाव में पूरी तरह ध्वस्त हो गया, जिसका अवशेष बिखरा हुआ है.
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