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90 वर्ष की आयु में भी टीबुराम माझी में है बच्चों को पढ़ाने का जोश व जज्बा, रिटायरमेंट के 25 साल बाद भी शिक्षा का दीपक जलाने के लिए लड़ रहे जंग

ऐसा भी क्या जीना जो लोगों के काम ही नहीं आये. उसने हमेशा लोगों की नि:स्वार्थ भाव से सेवा की है. उसके एवज से लोगों से कुछ अपेक्षा नहीं किया. जब गांव में एक भी स्कूल नहीं था तो स्कूल शुरू किया.

जमशेदपुर: 90 साल की उम्र में उनके अंदर पढ़ाने का वही जोश और जज्बा है, जो सालों पहले हुआ करता था. टीबुराम माझी ने पूर्वी सिंहभूम जिले के डोभा प्राइमरी स्कूल में साल 1957 में पहली बार कदम रखा था और कई सालों तक पढ़ाने के बाद 1999 में रिटायर हो गए. इतने सालों के बाद भी शिक्षा के प्रति उनका लगाव कम नहीं हुआ है. वह आज भी अपने गांव जमशेदपुर प्रखंड अंतर्गत दलदली पंचायत के लुकुईकनाली में बच्चों को पढ़ा रहे हैं. इसके लिए वह कोई पैसा नहीं लेते हैं. अपने रिटायरमेंट के बाद टीबुराम माझी ने फैसला किया कि वे बच्चों को पढ़ाना जारी रखेंगे. यह उनका प्यार था और उनमें ऐसा करने की ऊर्जा और इच्छा थी. वह पूरे प्यार,जोश और जुनून के साथ बच्चों को मुफ्त में पढ़ाते हैं. गांव और उसके आस-पास के इलाकों के कई बच्चों को पढ़ाकर दूसरों के लिए एक सकारात्मक उदाहरण स्थापित कर रहे हैं.
अभी भी साइकिल चलाकर लोगों से मिलने जाते हैं
टीबुराम माझी इतने उम्रदराज होने के बाद भी आसपास के गांव मेें साइकिल से ही घूमने चले जाते हैं. वे रोजाना अपने गांव लुकुईकनाली से 4 किमी दूर नारगा जरूर जाते हैं. उनका एनर्जी व उत्साह देखने लायक है. वे बताते हैं कि वे तभी रूकेंगे, जब वे थक जायेंगे. लेकिन फिलहाल तो उनका इरादा 100 साल का होने तक पढ़ाने का है. टीबुराम माझी को हर महीने पेंशन मिलता है. वह अपनी पेंशन की राशि गरीब व असहाय बच्चों की पढ़ाई पर ही खर्च कर देते हैं.
13 सालों तक श्रमदान व निजी खर्च से कच्ची सड़क को बनवाया
टीबुराम माझी को लोग पूर्वी सिंहभूम का दशरथ माझी भी कहते हैं. दरअसल उनकी भी कहानी कुछ दशरथ माझी से मिलती जुलती है. दशरथ माझी ने पहाड़ को तोड़कर रास्ता बनाया था. जबकि टीबुराम माझी जर्जर कच्ची सड़क को श्रमदान व अपने निजी खर्च से बनवाया. श्रमदान व निजी खर्च से 7 किमी सड़क को बनवाने की वजह से लोग उन्हें पागल की भी संज्ञा तक दे डालते थे. उन्होंने वर्ष 2007 से लेकर वर्ष 2020 तक हर साल सड़क को श्रमदान व मजदूर लगाकर सड़क को चुस्त दुरस्त करवाया. ताकि सड़क लोगों के चलने लायक बन जाये. वर्ष 2020 के बाद जनप्रतिनिधियों के द्वारा सडक का मरम्मतीकरण किया जा रहा है.
नदी पर बांस व लकड़ी से पूल भी बनाया
लुकुईकनाली से डोभा गांव तक बरसात के दिनों में जाना काफी मुश्किल हुआ करता था. दोनों गांव की दूरी मात्र 3 किमी है. लेकिन बरसात के दिनों में 8 किमी दूरी तय कर लोग आना-जाना करते थे. दरअसल दोनों गांव के बीच में एक छोटी नदी पड़ता था. बरसात के दिनों में छोटी नदी में पानी भर जाता था. टीबुराम माझी इस छोटी नदी में भी बांस व लकड़ी की मदद से एक पुल बनवा दिया. इस पुल को भी उसने निजी खर्चे से बनाया. पुल को बनाने के लिए किसी दूसरे व्यक्ति से सहयोग नहीं लिया. उसने जिसको भी काम में लगाया, बकायदा उसने उसके काम के एवज में मजदूरी दिया.
42 सालों तक सरकारी स्कूल के शिक्षक रहे
टिबुराम माझी 42 सालों तक स्कूल के शिक्षक रहे. टिबुराम ने अपने गांव के आसपास की शैक्षणिक स्थिति को दुरस्त करने के लिए डोभा गांव में 1956 में एक मिट्टी के घर में एक स्कूल की स्थापना की. स्कूल को खोलने में ग्रामीणों ने भी पुआल व बांस आदि देकर सहयोग किया. एक साल के अंदर ही स्कूल को सरकार ने अपने अधीन ले लिया. इसी स्कूल में 1957 में उनकी एक शिक्षक के रूप में नियुक्ति हुई.
लोगों की सेवा में जीवन किया समर्पित
टीबुराम माझी बताते हैं कि ऐसा भी क्या जीना जो लोगों के काम ही नहीं आये. उसने हमेशा लोगों की नि:स्वार्थ भाव से सेवा की है. उसके एवज से लोगों से कुछ अपेक्षा नहीं किया. जब गांव में एक भी स्कूल नहीं था तो स्कूल शुरू किया. रास्ता जर्जर व खराब था तो निजी खर्च से उसे दुरस्त कराया. श्रमदान कर जर्जर सड़क के गड्ढों में मिट्टी को डालकर लोगों के चलने लायक बनाया. नदी की वजह से आवागमन में दिक्कत था तो बांस व लकड़ी से पुल बनवा दिया. लोग क्या सोचते हैं और क्या कहते हैं. उनको उससे कोई लेना देना नहीं है. उन्हें सिर्फ इतना मालूम है कि उसने जो भी किया,लोगों की सहूलियत के लिए किया. वे बताते हैं कि हम सबों को एक-दूसरे काम जरूर आना चाहिए. जो जरूरतमंद हैं उनको अपने समर्थ के अनुसार सहयोग जरूर करना चाहिए.

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